April 21, 2015

प्रकृति ने दोनों को एक सा बनाया हैं पर समाज ने दोनों को बड़े होने के एक से अवसर प्रदान नहीं किये हैं।

एक महिला डॉक्टर ने आत्महत्या कर ली अपने सुसाइड नोट में उसने कारण दिया की उसका पति "गे" हैं और इस वजह से उसका वैवाहिक जीवन कभी सही नहीं रहा।  ५ साल के वैवाहिक जीवन के बाद भी वो सहवास सुख से वंचित हैं।  उसका ये भी कहना हैं की जब उसने अपने पति से पूछा तो उसको प्रताड़ित किया गया और उस से और उसके परिवार से दहेज़ माँगा जाने लगा।  उस ने अपना पूरा पत्र फेसबुक पर भी पोस्ट किया।
कल का पूरा दिन सारा सोशल मीडिया इसी बात से गर्म गर्म बहस में उलझा रहा।  बहस ये होती रही की " गे " पति की वजह से एक स्त्री का जीवन नष्ट हो गया।या बहस ये होती रही की " गे " होने को अपराध क्यों मानते हैं लोग और क्यों नहीं "गे " लोग अपनी बात अपने परिवार से कह देते हैं और क्यों किसी स्त्री का जीवन नष्ट करते हैं।  और बहस का तीसरा मुद्दा ये भी रहा की समाज इतना असहिष्णु क्यों हैं और क्यों नहीं लोगो को अपनी पसंद से जीवन जीने देता हैं।
 सवाल जिस पर बहस नहीं हुई
क्या किसी पति ने कभी आत्महत्या की हैं अपनी  पत्नी के "लिस्बन " होने के कारण ?
क्या स्त्रियां "लिस्बन " होती ही नहीं हैं ?
एक नौकरी करती प्रोफेशनल क्वालिफाइड डॉक्टर महिला सुसाइड कर सकती हैं अपने पति के " गे " होने के कारण पर ये जानने के बाद भी की उसका पति "गे " हैं वो उससे अलग नहीं होना चाहती हैं क्युकी उसको प्यार करती हैं।  क्या ये  प्यार हैं ? अगर प्यार हैं तो समझ कर और "गे " होने को बीमारी ना मान कर उसका इलाज ना करके अपने पति से अलग क्यों नहीं हुई ?
अगर महिला आर्थिक रूप से सक्षम थी तो इतना भय किस बात का डाइवोर्स की मांग करने से।

स्त्री पुरुष के प्रति समाज का रव्या हमेशा से दोहरा रहा हैं और इस बात पर चर्चा ही नहीं होती हैं।
आज से नहीं सदियों से अगर स्त्री प्रजनन में अक्षम है तो पति तुरंत दूसरा विवाह कर लेता हैं लेकिन अगर पुरुष प्रजनन में अक्षम हैं तो स्त्री को निभाना होता हैं
इसी प्रकार से अगर पुरुष सहवास के सुख से वंचित हैं विवाह में तो कई बार पत्नी की बिना मर्जी के भी उस से सम्बन्ध बनाता हैं { आज कल ये बलात्कार की क्षेणी में आता हैं } लेकिन स्त्री के लिये ऐसा कुछ भी नहीं हैं।

इसी विभेद के चलते स्त्रियां कभी मानसिक रूप से सशक्त नहीं हो पाती हैं उनके लिये शादी आज भी एक "सामाजिक सुरक्षा कवच " हैं जिसको वो पहन कर खुश होती हैं।

कभी उन कारण पर भी बात होनी चाहिये जहां एक लड़का "गे " हो सकता हैं पर एक लड़की " लिस्बन " नहीं होती हैं।
प्रकृति ने दोनों को एक सा बनाया हैं पर समाज ने दोनों को बड़े होने के एक से अवसर प्रदान नहीं किये हैं।

April 11, 2015

जब तक महिला आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होती हैं तब तक उसको " माय चॉइस " मिल ही नहीं पाती हैं।

कुछ दिन पहले दीपिका पादुकोण ने एक वीडियो में " माय चॉइस " की बात कहीं।  उनकी कहीं बातो के बहुत से मतलब निकाले गए , पक्ष विपक्ष मे बहुत कुछ लिखा गया।
लोगो ने वुमन एम्पावरमेंट के विरोध में बहुत लिखा पर लिखने वाले ये भूल गए की वुमन एम्पावरमेंट का सीधा सरल मतलब हैं आर्थिक रूप से सक्षमता।
दीपिका आर्थिक रूप से सक्षम हैं इस लिये "माय चॉइस " की बात कर सकती हैं दीपिका तो फिर भी एक सेलेब्रिटी हैं घरो में काम करके अपने को आर्थिक रूप से सक्षम करने वाली महिलाए भी आज कल " माय चॉइस " की सीधी वकालत करती हैं।
"माय चॉइस " यानी अपनी बात , अपनी पसंद , अपनी ना पसंद कहने / करने का सीधा अधिकार।
किसी भी महिला की "माय चॉइस " तभी मान्य हो पाती हैं जब वो अपने दम पर जिंदगी को जीने का माद्दा रखती हो।
दीपिका पादुकोण ने अपने को आज जिस मुकाम पर स्थापित किया हैं वो उनकी अपनी मेहनत हैं।  आज आर्थिक रूप से वो सक्षम हैं।  इस दौरान उन्होने ना जाने क्या क्या नहीं सुना कभी अपने रिलेशनशिप को लेकर तो कभी अखबारों में अपने वक्ष की तस्वीरो को लेकर।  क्या इस सब का जवाब देना जरुरी नहीं हैं ? सो उन्होने जवाब दिया " माय चॉइस " .
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८ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता हैं।  आज कल जगह जगह दुकानो पर सेल इत्यादि लगा दी जाती हैं और महिला को प्रोत्साहित किया जाता हैं की वो आ कर सामान ख़रीदे खुद।  अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस वास्तविक वर्किंग वुमन डे था।  इस दिन आर्थिक रूप से सक्षम महिला अपनी आर्थिक आज़ादी का जश्न मानती हैं।  और लोगो ने फिर इसको सुन्दर महिला , खूबसूरत महिला इत्यादि को बधाई देने का दिन बना दिया।  लोग भूल गए की इस दिन उन महिला को बधाई देनी चाहिये जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं।

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आज कल परिवारो में कलह का कारण हैं नारी सशक्तिकरण या वुमन एम्पवेर्मेंट क्युकी इसको स्त्री पुरुष की समानता का परिचायक मान कर आपसी लड़ाई का मुद्दा बनाया जाता हैं।  एक पत्नी का घर में रह कर घर संभालना और एक महिला का बाहर जा कर नौकरी करना दोनों में बहुत अंतर हैं।  बात घर के काम के छोटे बड़े या नौकरी करना बड़ी बात की हैं ही नहीं बात हैं की अगर आप समानता की बात करते हैं तो सबसे पहले आर्थिक रूप से सक्षम हो  कर ही समानता की बात जरुरी हैं। 
जब तक महिला आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होती हैं तब तक उसको " माय चॉइस " मिल ही नहीं पाती हैं। 
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर अगर आप अपने पति से पैसा लेकर खरीदारी कर रही हैं तो आप अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का अर्थ ही नहीं जानती हैं।  ये तो आप करवा चौथ पर भी करती हैं और बाकी दिन भी करती हैं फिर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस और बाकी दिनों में क्या अंतर हुआ ज़रा सोचिये।
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नर और नारी दोनों आज़ाद हैं , बराबर हैं इस लिये उस मुद्दे पर बार बार बहस करना गलत हैं।  दोनों को तरक्की के समान अधिकार मिले , पढ़ाई के समान अधिकार हो , रोजगार के समान अधिकार हो , समान काम के एवज  में समान तनखा हो बात इन सब मुद्दो पर होनी चाहिये।

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नारी शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं ऐसा लोग मानते हैं क्यों नहीं होगी क्युकी उसको परवरिश ही ऐसी मिलती हैं की वो कमजोर रहे।  घर में पनपने वाला पौधा और खुली हवा  में पनपने वाले पौधे मे अंतर होता ही हैं।  जिस दिन एक लड़की को वही परवरिश मिलेगी जो एक लड़के को मिलती हैं तो ताकत भी खुद बा खुद आ जाएगी।