July 21, 2012

बेटी नहीं बेटा है तू

मेरी  बेटी  नहीं बेटा है तू",  "मुझे मेरे माँ- पापा ने बेटे की तरह पाला है!"ऐसे ही शब्द मुझे आजकल रोज सुनने को मिलते हैं, और सोचने पर मजबूर हो  जाती हूँ कि 

क्या बेटियां बेटी बन कर नहीं रह सकती? क्यों उन्हें या तो कैदी बनाया जाये या बेटा बनाया जाये? मैं अक्सर पढ़ती हूं, कि हमारे यहाँ औरतो की  बहुत क़द्र होती थी!

बिना घूँघट के रहती थी,पूजा जाता था  उन्हें स्वयंवर रचाने तक का भी हक था!
विदुषियाँ होती थी, अपने आप में सम्पूर्ण..तभी तो ऐसी तेज युक्त संतान पैदा करती थी..और स्रष्टि व समाज सब साफ़ रहता था...मैं अपवाद की बात नहीं कर रही हूँ यहाँ..


फिर एक वक़्त आया,जब उन्हें घूँघट में कैदी बना दिया गया!नौकर की तरह रखा जाने लगा! सारे हक छीन लिए गए...न पढाना, न खुद का वर चुनने की आजादी, और न ही अपनी कोख में पली संतान के विषय में कोई भी फैसला लेने का हक..पुरुषों में सब कुछ अपने ही हाथ में ले लिया..ऐसे में पुरुषों ने कौन से परचम लहरा दिए? पूरी सामाजिक व्यवस्था ही गड़बड़ा गयी...

और अब तो प्रकृति को ही ललकार दिया, बेटी को बेटा बना दिया .और अजीब बात तो ये है, कि बहुत ख़ुशी होती है बेटियों को जब पापा कहते है, "बेटा है मेरा ये" मुझे तो ये शब्द बिलकुल पसंद नहीं है , बेटी हूँ, बेटी ही कहिये..मेरा अपना वजूद है, प्रकृति ने दोनों को अलग बनाया है! मैं बेटा नहीं बनाना चाहती! मैं खुश हूँ कि मैं आपकी बेटी हूँ, और बेटी बनकर ही नाम रोशन करुगी.


क्यों हमारा समाज बेटी को बेटी बनाकर नहीं रख सकता और बेटे को बेटा?.या यूँ कह लो कि क्यों पुरुष, पुरुषत्व नहीं दिखलाता, और नारी नारीत्व..? क्या वाकई में,बेटियों को बराबर खड़ा करने के लिए बेटे शब्द का सहारा लेना जरुरी है..? क्यों कहते हैं, कि आजकल तो लड़कियां लड़कों से आगे हैं? आगे जाकर करना क्या है? क्यों आगे जाने की होड लगी है दोनों में? दोनों एक ही गाडी के दो पहिये हैं,लड़की लड़की बनकर रहे

और लड़का लड़का ही रहे! तो फिर क्या उन्नति नहीं हो सकती?


जब तक बेटी में बेटी नहीं होगी,या एक पत्नी में पत्नी नहीं होगी?तो कैसे ये गाड़ी चल पाएगी? मुझे डर ये है कि कही येदोनों अपना अलग संसार ही ना बसा ले! उत्तरी छोर पुरुषों का, दक्षिणी महिलाओं का..या फिर इसका उल्टा भी हो सकता..उत्तरी महिलाओं का, दक्षिणी पुरुषों का..और वैसे भी विज्ञानं ने इतनी तरक्की तो कर ही ली है कि वंश को आगे बढ़ाने में कोई दिक्कत नहीं होगी..है न? आप हंसिये मत, दोनों की प्रतिस्पर्धा अगर ऐसी ही रही तो यही होने वाला है!


ये कहते हैं,कि लड़की लड़का हैं! ठीक है,  फिर क्यों उस लड़के को बस में सीट की जरुरत होती है? बाकी लडको की तरह खड़े नहीं हो सकती ?तब कैसे आप झट से कह दोगे, महिला है बेटा, सीट दे दे!अधिकार की बात हो तो हम बेटियां हैं,और वैसे हम बेटों से आगे हैं! यहाँ मैं ये बिलकुल नहीं कह रही कि नारी बराबर नहीं है..लेकिन ये आगे, पीछे, बराबर की लड़ाई मेरी समझ से परे है...
और ये महिला मोर्चा वालों से तो मैं यही कहूँगी, ये तो वही बात हो गई कि माँ लाठी लेकर कहे कि मैं माँ हूँ, मेरी पूजा कर...बस में सीट दिलाने की बजाय नारी को खड़ा होना सिखाइये,, उससे कहिये कि समाज में अपना स्थान न छोड़े..पूजा करवानी है तो देवी बने,,किन्तु सशक्त ताकि पीछे कई बरसो से जो शोषण हो रहा है, उसके बारे में पुरुष सोचे भी न..और कम से कम अपनी संतान को ( बेटा या बेटी) उसके प्राकृतिक गुणों से परिचित तो करवा ही दें,,,सिखाना तो आपकी मर्जी है..
दोनों का एक दूसरे के मन में सम्मान होना जरुरी है...दोनों अपना अपना काम करें,,,और ये होड आगे निकलने की, उसे छोड दे..इससे कुछ हासिल नहीं होगा...बस स्थिति और बिगड जायेगी...

आपके विचार सदर आमंत्रित हैं...:))


copyright गुंज झाझारिया

16 comments:

  1. गहन चिन्तनयुक्त प्रासंगिक लेख

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  2. जो बेटियों को नकार रहे हैं...नहीं समझते कि कल उनके बेटों के लिए बहुएं कहाँ से आयेंगे...? विचारोत्तेजक और सामयिक पोस्ट!!

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  3. सुदर लेख | विचार करने योग्य

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  4. इस आलेख में कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं कि विरोधी स्वर निकाले जाएँ... पूर्वाग्रहमुक्त विचार सभी को अच्छे लगते हैं.
    बराबरी का हक़ चाहने वालों की मानसिकता में कहाँ विरोधाभास नज़र आता है... यह आपने बाखूबी दर्शाया है. साधुवाद.

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  5. एक और साधुवाद कि आपने इस पोस्ट पर ... मोडरेशन ऑप्शन हटा लिया है.... ये हुई न बात!

    विकृत मानसिकता वाले ......... कब तक गंदा करेंगे ! उनकी क्षमता भी लेख ली जाये.

    कोई चाँद पर थूके तो क्या थूक उनके ही मुँह पर ही आकर गिरता.

    बस ऎसी ही निर्भीक रहिये. हमारा सहयोग ज़ारी रहेगा.

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    1. *कोई चाँद पर थूके तो क्या थूक उनके ही मुँह पर ही आकर नहीं गिरता.

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    2. * उनकी क्षमता भी देख ली जाये.
      {"प्रवाह में रहने के कारण लिखित भाषा मन के हिसाब से नहीं बहती..."}

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  6. बेटी को बेटा कहना एक और छद्म है।

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  7. http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2011/03/blog-post_04.html
    http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2008/04/blog-post_15.html
    http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2008/04/blog-post_27.
    http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2008/09/blog-post_361.html
    http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2008/07/blog-post_6325.html
    http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2008/07/blog-post_6325.html

    in sab link par isii vishya par charcha hui haen गुंज झाझारिया aap padh saktii haen

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  8. बेटी को बेटा कह कर किसी भ्रम में नहीं डाला जाता है, बेटी को बेटी जैसे संस्कार देकर ही बड़ा किया जाता है, बेटा कहने का अर्थ सिर्फ ये होता है कि लोगों का विचार है कि बेटा ही नाम रोशन करता है और वंश को आगे बढ़ाता है या फिर बुढ़ापे का सहारा बनता है - सिर्फ इस पूर्वाग्रह का एक उत्तर है . बेटी एक अच्छी बहू , पत्नी और माँ भी बनकर अपने दायित्वों को पूर्ण करेगी. वैसे ये उन लोगों के प्रश्नों का उत्तर होता है जो बेटी वालों को बेटा न होने का अहसास दिलाया करते हें. हमें ये अहसास भले ही न हो लेकिन वे अपना दायित्व पूरा करते रहते हें.
    जहाँ तक सीट का सवाल है तो आज की बच्चियां इस तरह के काम करना पसंद नहीं करती हैं , अपने लड़की होने से वे कोई दया नहीं चाहती हैं आज की पीढ़ी की बात जाने दीजिये मैंने आज तक कभी तो अपने नारी होने के नाते किसी से नहीं मांगी. चाहे ऑफिस बस हो, ट्रेन हो या फिर बस हो. हम सक्षम हैं हर बराबरी करने में तो फिर खड़े होकर सफर करने में भी हैं. संघर्ष और परिश्रम करने में नारी कमजोर नहीं है बल्कि वह पुरुष से अधिक परिश्रमी मानी जाती है क्योंकि वह आज घर और बाहर दोनों जगह पर सफलतापूर्वक काम कर रही है. ऑफिस और परिवार को बखूबी चला रही है.

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  9. i am agree with you rekha ji !
    both are same by physicle and mantle power ..

    for more pls visit my new post ..
    "Abla Kaoun"

    http://yayavar420.blogspot.in

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  10. इसमें कोई दो राह नहीं कि आपकी बात सही है रेखा जी..
    किन्तु आप सिर्फ एक ही तथ्य से वाकिफ हैं..माफ़ी चाहूंगी..बात इतनी आसान नहीं जितना आप समझ रही हैं..
    बेटी को बेटा कह कर ये दिखाना कि मेरी बेटी बेटो जैसे नाम रोशन करेगी, इसके पीछे माँ-बाप का तो कोई गलत इरादा नहीं होता..किन्तु इससे बेटी के अस्तित्व पे आंच जरुर आती है..क्या हमेशा नारी को सहारा लेना पडेगा पुरुष के नाम का? बरसो से देखती आई हूँ कि हमारा समाज बेटी को छूट तो देने लगा है कित्नु अभी तक है पुरुष प्रधान..मैं कतई नहीं चाहती कि यह महिला प्रधान हो..मैं सिर्फ यही चाहती हूँ कि दोनों का समाज में बराबर स्थान हो..

    और जो दूसरी बात कही आपने..आजकल कि लडकियों की..सीट मांगने वाली..वो उदहारण था...नारी को खड़ा होना सीखना होगा..इसका मतलब यह नहीं था ..कि बस में खड़ा होना सीखना होगा..कौनसे तथ्य कि बात करू मैं? मैं सबल हूँ ..नारी शक्ति है..कहने से कुछ नहीं होता है मैडम..आंकडे उठा कर देखिये, घरेलू हिंसा होती रहती है, औरत कुछ नहीं कहती..पति मरता है, उसे प्यार समझती है.मेरे आस-पड़ोस में ही मैं ५-६ केस सुन चुकी हूँ दहेज के चक्कर में जला दिया, मार दिया..और मैं दिल्ली एन-सी-आर में ही रहती हूँ..इसलिए कहा कि सीट कि भीख मांगने कि बजाय खड़ा होना सीखो..जब खुद का सम्मान नहीं करोगी तो कौन करेगा?

    अब अपने मेरे उस उदहारण को सच मान ही लिया तो एक और बात मैं आपको बताना चाहूंगी कि दिल्ली कि बसों में रोज आना जाना लगा रहता है..महिलाओ के लिए आरक्षित सीटें होती हैं...अगर गलती से उस पर कोई बुढा सा, अनपढ़ आदमी बैठ जाए जिसे पता भी ना हो कि महिलाओं की सीट है.२३-२४ साल की आज की सशक्त नारी आकर उस बीमार बूढ़े को बिना किसी झिझक के कह देती है, "ओ अंकल उठो, महिलाओं की सीट है"
    चाहे जाना उसे अगले स्टॉप तक ही हो..
    .(मानती हूँ कि नियम नियम है..पर नारी तो उदारता और प्रेम कि मूर्ति है..करुना का सागर है, ये कैसे भूलू?)))

    कुछ भी कहो..तथ्य हैं स्वीकारने पदेंगे..नारी का अस्तित्व खतरे में है..कोई तो पति के हाथ से मार खाना धर्म मानती है ..और किसी में नर बनने और उससे आगे निकलने की होड है..
    मात्र ५० लाख महिलाये आप जैसी होंगी जो अभी तक नारी के अस्तित्व में हैं..किन्तु १ अरब की आबादी सिर्फ ५० लाख कैसे संभालेंगी?

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  11. लोगों की मानसिकता समझना मुश्किल है !!

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  12. mere mn ki baat kah di aapne..accha lekh

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