बहुत सी महिला खाना नहीं बनाती हैं । उनको खाना बनाना एक निकृष्ट काम लगता हैं । उनको लगता हैं जब तक वो रसोई से रिवोल्ट नहीं करेगी तब तक वो मानसिक रूप से आज़ाद नहीं हैं । रसोई का काम करना यानी एंटी नारीवादी होना और रसोई का काम ना करना यानी नारीवादी होना ।
नारी सशक्तिकरण कहता हैं की अगर किसी स्त्री को सिर्फ खाना बनाना आता हैं तो भी वो सशक्त बन सकती हैं । अपने कदमो पर खडी हो सकती हैं । गावं देहात और वो सब महिला जिनको नौकरी नहीं मिल सकती हैं उनके लिये जगह ऐसी योजनाये बनी हैं जहां वो अचार पापड इत्यादि बना कर बेच सकती हैं
लिज्जत पापड़ भी ऐसी ही एक संस्था की उपज हैं और दूसरी संस्था हैं सेवा ।
जो लोग संस्था से नहीं जुड़ना चाहते हैं वो अपने आप भी कुछ अकेले कर सकते हैं
मै दो ऐसी महिला को जानती हूँ जो अपने घर के आस पास मे ऐसा काम करती हैं
उन मे से एक महिला घर का सादा खाना बनाती हैं उन बुजुर्गो के लिये जिनके बच्चे उनके साथ नहीं रहते या रोज काम पर जाते हैं । ये महिला दिन में लंच और रात में डिनर पैक कर कर के इन बुजुर्गो के लिये भेजती हैं । बिलकुल सादा भोजन यानी दाल रोटी चावल और सब्जी । इसके लिये वो महीने के हिसाब से पैसा लेती हैं और रोज खाना भेजती हैं । जो बुजुर्ग खुद आकर ले जाते हैं उनसे पैसा भी कम लेती हैं ।
दूसरी महिला ने अपने आस पास नौकरी करती महिला के बच्चो को अपने पास रखना और खाना खिलाने का जिम्मा लिया हैं । बच्चे स्कूल से सीधे उसके यहाँ आते हैं खाना खाते हैं और फिर अपने घर जाते हैं । वो रोज करीब २० बच्चो को खाना खिलाती हैं । इसके लिये वो अडवांस पैसा लेती हैं ।
खाना बनाना एक कला हैं और सबको आना चाहिये । स्त्री , पुरुष दोनों को आज के समय में अगर खाना बनाना नहीं आता हैं तो एक कमी लगती हैं उनको ।
विदेशो में भी वही लोग आराम से रह पाते हैं जो खाना बनाना जानते है । जी हाँ विदेशी भी खाना बनाते हैं । ये सही हैं की उनके यहाँ इतना टीम टाम नहीं होता हैं पर खाना तो वो भी बनाते हैं
किसी भी काम को / बात को नकारात्मक और सकारात्मक कहना कितना सही हैं ?? बहुदा देखा जाता हैं की जो नकारात्मक हैं आप के लिये वो किसी के लिये सकारात्मक भी हो सकता हैं ।
कम समय मे भी बहुत बढ़िया खाना बनाया जा सकता हैं
All post are covered under copy right law । Any one who wants to use the content has to take permission of the author before reproducing the post in full or part in blog medium or print medium ।
Indian Copyright Rules
मुझे लगता है कि सामान्य रूप से खाना बनाना सबको आना चाहिए, चाहे स्त्री हो या पुरुष. शेष, हर कोई पाक कला विशेषज्ञ तो नहीं हो सकता.
ReplyDeleteमुझे हमेशा इसका अफ़सोस रहता है की मैंने अच्छे से खाना नहीं बना पाता, सिर्फ कामचलाऊ दाल-चावल ही बना पाता हूँ, जबकि रोटी-सब्जी बनाने में ज्यादा हुनर है.
ReplyDeleteमैं खुद खाना बनाना चाहता हूँ ताकि आत्मनिर्भर बन सकूं, और कभी पत्नी की तबियत ठीक न हो या उसकी इच्छा न हो तो बना सकूं. इसलिए भी की कभी अपने दोस्तों या परिचितों को अपने हाथ का बना खिलाकर वाहवाही लूटूं.
महिलाओं के खाना बनाने में क्या सकारात्मक और नकारात्मक? यह तो बहुत से कामों की तरह ही एक काम है. दुनिया के तमाम होटलों में मुख्यतः पुरुष खाना बनाते हैं तो कोई तीर थोड़े ही मार देते! कुछ लोग खालीपीली दिमागी घोड़े ही दौडाते रहते हैं.
हाँ... गलत बात तब है जब महिलायें बाहर भी आठ-दस घंटे काम करें और लौटकर फिर से चूल्हे में खपें. उन्हें भी कुछ आराम तो मिलना ही चाहिए.
यहाँ दिल्ली तरफ अजीब सोच है. मैं कभी दफ्तर में पत्नी के पक्ष में कोई बात कर देता हूँ (जैसे मैंने कभी कपडे खुद धो दिए, या उसके लिए चाय बना दी) तो ज्यादातर पुरुष मुझे निम्न कोटि का मानने लगते हैं. वे अक्सर कहते हैं की ये काम करने थे तो शादी ही क्यों की.
खाना बनाना कोई बुरा काम नहीं यह महिला और पुरुष को अनिवार्य रूप से आना चाहिए... यह गलत तब हो जाता है जब किसी औरत को औरत होने के नाते बाध्य किया जाता है कि वह खाना बनाए तथा पुरुष को यह कहा जाए कि खाना बनाना मर्दों का काम नहीं है। कितने अफसोस की बात है कि इतनी बुनियादी जरूरत पर भी कितना बेहूदा विभाजन है यह, जो अब तक की इंसानी तरक्की पर सवालिया निशान लगता है।
ReplyDeleteबिल्कुल सही कह हर चीज के लिए पुरुष महिला दोनों को आत्मनिर्भर होना चाहिए मुसीबत के समय काम आता है और खासकर खाना बनाना तो आना ही चाहिए | पेट भरने की जरुरत तो सभी को होती है और कभी कभी परिस्थितिया ऐसी आ जाये तो रसोई में जा कर कम से कम खाना तो बना कर खाया जा सके | वैसे मै तो खुशनसीब हूं की मेरे पापा , छोटे भाई और पति तीनो ही अच्छे कुक है | पापा अपने बाई बहन में बड़े थे इसलिए सीख गये भाई को हम बहनों ने खाना बनाना सीख दिया जो उसे होस्टल में जा कर और फिर नौकरी के लिए अकेले रहने पर बड़ा फायदा पहुँचाया और पतिदेव तो माँ के ना होने के कारण सीख गये, कई बार वो हम लोगों के लिए चाइनीज या रविवार को नास्ता बना कर खिलाते है ( ज्यादतर ये दिखाने के लिए की देखो मेरा तरीका ज्यादा अच्छा और हेल्दी है और तुम वही उत्तर भारतीय मसालेदार तेल घी वाला अन्हेल्दी खाना बनाती हो ऊफ !! ) हा मुझे ही जरुर रोज रोज रसोई में जा कर खाना बनाना पसंद नहीं है पर मज़बूरी है भूखी नहीं रह सकती ना तो बनाना ही पड़ता है :( कभी कभी बनाना हो तो बड़ा अच्छा खाना बनाती हूं :) |
ReplyDeleteहमें तो ठोक पीट कर अच्छा खाना बनाना सिखाया गया है, फ़ाईव स्टार का सेफ़ भी कहीं नही लगता. जब खाने में शर्म नही तो खाना बनाने में काहे की शर्म?:)
ReplyDeleteरामराम
यह बात आपकी बहुत ही सामयिक है | किन्तु यह सोच आई क्यों ? इसके पीछे वही वजह है - जो किसी भी force के विरुद्ध होती है - कि यह सुन सुन कर कि "स्त्री को खाना बनाना ही चाहिए" तो कई महिलाओं का विरोध इस रूप में प्रकट होता है | यह ऐसा ही है जैसे लडकिया कहे कि "मुझे सिगरेट पीनी है"| - वह इसलिए नहीं कि उसे सिगरेट चाहिए- बल्कि इसलिए कि उसे "यह करना होगा और यह नहीं करना होगा - क्योंकि तुम लड़की हो " का विरोध करना है | फिर भले ही वह सिगरेट उसे स्वयं को ही नुकसान करेगी यह जान कर भी उसे सिगरेट चाहिए |
ReplyDeleteस्त्री और पुरुष दोनों ही को खाना पकाना आना चाहिए - आत्म निर्भरता होनी बड़ी आवश्यक है | ऊपर के लेख और पाँचों टिप्पणियों से पूर्ण सहमत |
सुन्दर विचार . लेकिन शायद ये विचार उन महिलावो तक ना पहुँच पाए जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं.
ReplyDeleteसुन्दर विचार . लेकिन शायद ये विचार उन महिलावो तक ना पहुँच पाए जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं.
ReplyDeleteखाना बनाना बनाना वाकई एक कला है और जिसे यह नहीं आती वह जिंदगी में परेशान रहता है। जब हमें घर से दूर रहने का इत्तेफाक हुआ तो बहुत तकलीफ हुई। हम वैसे भी पाक-नापाक का खास खयाल लेकर बड़े हुए। बडे से बडा होटल ले लिया लेकिन जब उसमें अंदर जाकर यह जांच की कि बर्तन कैसे धुल रहे हैं और खाना कैसे बन रहा है तो बनाने वाले भी गंदे मिले और एक ही पानी में बर्तन निकाल कर कपडे से साफ करते हुए मिले। सब देखा और वहीं खाना पडा क्योंकि खुद बनाना नहीं जानते थे।
ReplyDeleteफिर एक दो डिश बनानी सीखी।
हमारा दोस्त ऐसी रोटियां बनाता है कि उसकी बहन भी नहीं बना सकती। उनकी वालिदा बीमार पडीं तो घर का सारा काम उन्हें ही करना पडा, सो वे सीख गए।
जो लोग खाना पेट में उतारना जानते हैं उन्हें यह भी जानना चाहिए कि उसे पेट में उतारने लायक कैसे बनाया जाए ?
आजकल खाने पीने को एक धंधे के तौर पर भी बढिया रेस्पॉन्स मिल रहा है।
हमारे एक जानकार ने कई धंधे किए लेकिन सब फेल और जब उसने रोटी पानी का धंधा किया तो उसके वारे के न्यारे हो गए।
अच्छी पोस्ट ।
खाना बनाने की कला को मैंने सीखने का प्रयत्न किया पर सफल न हो सका। काश यह कर पाता।
ReplyDeleteसुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteमेरी एक रिश्तेदार कपड़े सिलने का काम करती हैं, भले ही उसे दिल्ली जैसे शहर में बुटिक का नाम दिया जाता हो, पर आत्म-निर्भर तो हैं।
ReplyDelete***
(खाना बनाने वाले विषय पर खुछ भी बोलना गोल कर गया हूं, मुझे तो बिल्कुल ही नहीं आता और मैं ‘उन’ पर ही निर्भर हूं)
खाना बनाना एक कला तो है ही,कई अन्य ज़रूरी कामों में बहुत ऊपर भी है। इसका सम्बन्ध किसी के सशक्त अथवा अशक्त होने से हो न हो,स्वास्थ्य से सीधे तौर पर है। बाहर का खाना तत्काल चाहे जितना स्वादिष्ट मालूम हो,दीर्घकाल में वह नुकसानदायी ही साबित होता है। जबकि, वर्षों तक किसी एक ही महिला के हाथ से बने भोजन के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। कोई माने न माने,मातृ-शक्ति की तन्मयता ही इसका कारण हो सकती है।
ReplyDeleteअंदर की बात तो ये है कि कई महिलाएँ घरों में खुद ही लडकों और पुरुषों को खना बनाने या साफ सफाई जैसे काम करने ही नहीं देती.क्योंकि उन्हें पता है कि इससे काम फैलेगा ही जब खाना आधे घण्टे में बनना चाहिये उसमें ढाई घण्टे लग जाते है.उसके बाद भी खाना अच्छा बने कोई गारण्टी नहीं है.उन्हें शुरुआत में बिना किसी रोक टोक के मौके दिए जाएँ तो ज्यादातर पुरुष सहयोग करेंगे ही.लेकिन महिलाएँ तो शुरु में ही हिम्मत हार जाती है.ऐसे डरने से कैसे काम चलेगा.
ReplyDelete