" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
"The Indian Woman Has Arrived "
एक कोशिश नारी को "जगाने की " ,
एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
शायद, आज के समाज का सच यही है. अब आप ही देखिये, आपकी कल की पोस्ट पर कितने कमेंट आये. गिने-चुने पाँच. इससे यही तो सिद्ध होता है कि लोग दहेज जैसे गम्भीर मसले को बहस के लायक भी नहीं समझते. यह हमारे समाज की विडम्बना नहीं तो और क्या है? लोग उसी तरह दहेज लेना-देना भी स्वीकार कर लेते हैं जैसे घूस देना और लेना, जैसे कि इसके बगैर काम चल ही नहीं सकता. मेरे भ्रष्टाचार-सम्बन्धी एक लेख पर एक सज्जन ने कमेंट किया था कि "आप देखिये कि यह जी.डी.पी. में किस तरह योगदान देता है." मतलब यह कि जो चीज़ पैसा कमाती है, वह सही है. भले ही एक गरीब बाप बेचारा बिक जाये अपनी बेटी के लिये दहेज जुटाने में. जी हाँ, जो लोग आराम से दहेज जुटा सकते हैं, वे यह बिल्कुल नहीं सोचते कि इससे उन माँ-बाप पर कितना दबाव बढ़ जाता है, जो इतने सक्षम नहीं हैं. और कुछ लड़कियाँ भी खुद दहेज के लिये ज़ोर देती हैं. दूसरों के बारे में कौन सोचता है? बस कुछ हम और आप जैसे लोग वैचारिक लड़ाई लड़ते रहते हैं. क्यों नहीं कोई लड़की यह हिम्मत दिखाती कि वह यह प्रण ले कि वह दहेज लेने वाले किसी लड़के से शादी नहीं करेगी? ऐसे इक्का-दुक्का उदाहरण ही मिलते हैं और वे भी नज़ीर नहीं बनते. मैंने यह प्रण कर रखा है, है किसी में ये साहस???
मुक्ति यही प्रण मेरा भी रहा हैं । और आप को एक बात और बता दूँ दहेज़ को लोग गलत नहीं मानते एक रस्म मानते हैं । जितनी भी महिला आप को नारी , नारी विषयों पर लिखती मिलगी वो सब ज्यादातर समाज के हर उस नियम को मानती हैं जिसमे उनका "फायदा " होता हैं । जिन होने बिना दहेज़ के विआह किया हैं उन के पति का स्तर उनसे कमतर ही रहा हैं । बात पसंद कि हो तो समझ आता हैं लेकिन अगर अपने से कम स्तर पर इस लिये विवाह करना हो कि वो दहेज़ नहीं लेगा तो ये कितना सही हैं । जब तक दहेज़ और कन्यादान जैसी रस्मो को नारी खुद सामाजिक व्यवहार के नाम पर मान्यता देगी तब तक कहीं कुछ नहीं बदल सकता । समान अधिकार कि बात निरर्थक हो जाती हैं
आप के विचार पढे। अच्छा लगा। विषय गंभीर है। सार्थक बहस होनी चाहिये। सिर्फ़ क्यूं से काम नहीं चलेगा। "कैसे" भी बताना होगा।
इस दानव के खिलाफ़ ज़ंग मैंने अपने विद्यार्थी जीवन से ही शुरु किया था। और मेरा कैसे था ... मैं उन लोगों की बारात नहीं जाता जो दहेज लेकर शादी करते हैं। इसके लिये पहली शुरुआत अपने घर से ही हुई। मैं जिस राज्य से हूँ वहां दहेज को ग्लोरीफाई किया जाता है .. "मेरे लड़्के को उसके लड़के से ज़्यादा दहेज मिला।"
मेरे इस प्रण ने बहुतों की बोलती बंद कर दी। कई तो मेरे इस आदर्श पर चल पड़े। जिस परिवार में मेरी शादी हुई वह परिवार दहेज विरोधी हो गया।
दूसर उदाहरण निशा वाला है जिसने दहेज के दानवों की बरात लौट दी और ऐसे लोभी लड़के से शादी नहीं की।
मैंने अपने ब्लाग पर इससे मिलता पोस्ट प्रस्तुत किया था --- धन्य बिटिया निशा रानी।
आपको साधुवाद। इस विषय पर चर्चा आगे बढाइए। उद्देश्य भी तो यही है बात-चीत के ज़रिए कुछ समाधान निकाला जाए।
कुछ बातें करना आसान होता है और कुछ बातें कहने में आसानी होती है. शादी आजकल दिखावा बनती जा रही है. आप स्वयं देखिये नित नए-नए विवाह घर खुल रहे हैं जिनमें शादी का खर्च लाख-लाख रुपये आता है. इसको लड़की का बाप कैसे जोड़ता है कभी सोचा है? दहेज़ की समस्या आज समस्या नहीं रह गई है समाज में, ये सत्य है. बारात घर में उतर कर अन्दर बाद में आती है, बहू बाद में देखी जाती है पहले देखा जाता है कि सामान क्या आया, कैसा आया, कितना आया? कम जायद, अच्छा खराब का आकलन घर के स्त्री-पुरुष-बच्चे सभी करने लगते हैं. दहेज़ पर अब आम राय बन गई है. बिटिया बा बाप स्वयं सोचता है कि यदि कार न दी तो समाज में उसकी भी नाक कटेगी कि अपनी बेटी को बिना कार के विदा कर दिया. आप खुद देखिये कि एक लखपति भी अपनी बेटी के लिए करोडपति वर ढूँढता है, उसके लिए घर-वर का सम्पान होना मायने रखता है फिर उसी अनुपात में खातिरदारी.......................... लगे हाथ समस्या तो आएगी ही. लगभग ४-५ वर्ष पहले हमारे परिचित में एक शादी इसी कारण टूटी थी कि लड़के वालों ने दहेज़ नहीं मानागा. लड़की वालों को शक हुआ कि जरूर लड़के में कोई कमी है तभी तो दहेज़ नहीं ले रहे हैं (लड़का सिविल सेवा में था) अब इसके क्या निदान है. दहेज़ का दानव देने और लेने, दोनों के मन में बैठा है. इसे अब समस्या नहीं सिस्टम मान लिया गया है ये नितांत सही है........क्या करेंगे?? जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
माफ कीजिये में ब्लॉग पर देर से आई और इसलिए देर से कमेन्ट कर रही हूँ -
मैंने और मेरे पिताजी ने भी प्राण लिया था की उस घर में मेरी शादी नहीं होगी जो लोग दहेज़ मांगेंगे। मेरे ससुराल वालों ने कोई मांग नहीं रखी लेकिन यहाँ बात खत्म नहीं होती। शादी की हर रस्म में लड़की के ही घर से कुछ न कुछ जाता रहा जो मेरे पिताजी ने अपनी ख़ुशी और सक्षमता से किया। मैं नौकरी करती थी इसलिए मैंने अपना खर्चा जहाँ तक हो सका खुद उठाया, कोशिश की पिताजी पर थोड़ा कम भर आये। पर शादी की रस्म से सभी ही वाकिफ हैं। मुझे लगता है की अगर हमें देहेज को जड़ से हटाना है तो शादी की परंपरा को ही फिर से परिभाषित करना पड़ेगा क्यूंकि कोई कितना भी कोशिश कर ले किसी न किसी रूप में दहेज़ की प्रथा चलती रहेगी। या दूसरा रास्ता है Court Marriage.
mera aisa manana hai ki purush swayam hi dahej ka ichhuk hai tabhi to sabkuchh apni marji se karta hai jab dahej ki baat aati hai to chuppi sadh leta hai. aage aakar mata pita ka virodh kyon nahi karta, aur kehta ki main dahej ke bina shaadi karoonga.
शायद, आज के समाज का सच यही है. अब आप ही देखिये, आपकी कल की पोस्ट पर कितने कमेंट आये. गिने-चुने पाँच. इससे यही तो सिद्ध होता है कि लोग दहेज जैसे गम्भीर मसले को बहस के लायक भी नहीं समझते. यह हमारे समाज की विडम्बना नहीं तो और क्या है? लोग उसी तरह दहेज लेना-देना भी स्वीकार कर लेते हैं जैसे घूस देना और लेना, जैसे कि इसके बगैर काम चल ही नहीं सकता. मेरे भ्रष्टाचार-सम्बन्धी एक लेख पर एक सज्जन ने कमेंट किया था कि "आप देखिये कि यह जी.डी.पी. में किस तरह योगदान देता है." मतलब यह कि जो चीज़ पैसा कमाती है, वह सही है. भले ही एक गरीब बाप बेचारा बिक जाये अपनी बेटी के लिये दहेज जुटाने में. जी हाँ, जो लोग आराम से दहेज जुटा सकते हैं, वे यह बिल्कुल नहीं सोचते कि इससे उन माँ-बाप पर कितना दबाव बढ़ जाता है, जो इतने सक्षम नहीं हैं. और कुछ लड़कियाँ भी खुद दहेज के लिये ज़ोर देती हैं. दूसरों के बारे में कौन सोचता है? बस कुछ हम और आप जैसे लोग वैचारिक लड़ाई लड़ते रहते हैं. क्यों नहीं कोई लड़की यह हिम्मत दिखाती कि वह यह प्रण ले कि वह दहेज लेने वाले किसी लड़के से शादी नहीं करेगी? ऐसे इक्का-दुक्का उदाहरण ही मिलते हैं और वे भी नज़ीर नहीं बनते. मैंने यह प्रण कर रखा है, है किसी में ये साहस???
ReplyDeleteमुक्ति यही प्रण मेरा भी रहा हैं । और आप को एक बात और बता दूँ दहेज़ को लोग गलत नहीं मानते एक रस्म मानते हैं । जितनी भी महिला आप को नारी , नारी विषयों पर लिखती मिलगी वो सब ज्यादातर समाज के हर उस नियम को मानती हैं जिसमे उनका "फायदा " होता हैं । जिन होने बिना दहेज़ के विआह किया हैं उन के पति का स्तर उनसे कमतर ही रहा हैं । बात पसंद कि हो तो समझ आता हैं लेकिन अगर अपने से कम स्तर पर इस लिये विवाह करना हो कि वो दहेज़ नहीं लेगा तो ये कितना सही हैं । जब तक दहेज़ और कन्यादान जैसी रस्मो को नारी खुद सामाजिक व्यवहार के नाम पर मान्यता देगी तब तक कहीं कुछ नहीं बदल सकता । समान अधिकार कि बात निरर्थक हो जाती हैं
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआप के विचार पढे। अच्छा लगा। विषय गंभीर है। सार्थक बहस होनी चाहिये। सिर्फ़ क्यूं से काम नहीं चलेगा। "कैसे" भी बताना होगा।
ReplyDeleteइस दानव के खिलाफ़ ज़ंग मैंने अपने विद्यार्थी जीवन से ही शुरु किया था। और मेरा कैसे था ...
मैं उन लोगों की बारात नहीं जाता जो दहेज लेकर शादी करते हैं। इसके लिये पहली शुरुआत अपने घर से ही हुई। मैं जिस राज्य से हूँ वहां दहेज को ग्लोरीफाई किया जाता है .. "मेरे लड़्के को उसके लड़के से ज़्यादा दहेज मिला।"
मेरे इस प्रण ने बहुतों की बोलती बंद कर दी। कई तो मेरे इस आदर्श पर चल पड़े। जिस परिवार में मेरी शादी हुई वह परिवार दहेज विरोधी हो गया।
दूसर उदाहरण निशा वाला है जिसने दहेज के दानवों की बरात लौट दी और ऐसे लोभी लड़के से शादी नहीं की।
मैंने अपने ब्लाग पर इससे मिलता पोस्ट प्रस्तुत किया था --- धन्य बिटिया निशा रानी।
आपको साधुवाद। इस विषय पर चर्चा आगे बढाइए। उद्देश्य भी तो यही है बात-चीत के ज़रिए कुछ समाधान निकाला जाए।
कुछ बातें करना आसान होता है और कुछ बातें कहने में आसानी होती है. शादी आजकल दिखावा बनती जा रही है. आप स्वयं देखिये नित नए-नए विवाह घर खुल रहे हैं जिनमें शादी का खर्च लाख-लाख रुपये आता है. इसको लड़की का बाप कैसे जोड़ता है कभी सोचा है?
ReplyDeleteदहेज़ की समस्या आज समस्या नहीं रह गई है समाज में, ये सत्य है. बारात घर में उतर कर अन्दर बाद में आती है, बहू बाद में देखी जाती है पहले देखा जाता है कि सामान क्या आया, कैसा आया, कितना आया? कम जायद, अच्छा खराब का आकलन घर के स्त्री-पुरुष-बच्चे सभी करने लगते हैं.
दहेज़ पर अब आम राय बन गई है. बिटिया बा बाप स्वयं सोचता है कि यदि कार न दी तो समाज में उसकी भी नाक कटेगी कि अपनी बेटी को बिना कार के विदा कर दिया.
आप खुद देखिये कि एक लखपति भी अपनी बेटी के लिए करोडपति वर ढूँढता है, उसके लिए घर-वर का सम्पान होना मायने रखता है फिर उसी अनुपात में खातिरदारी..........................
लगे हाथ समस्या तो आएगी ही.
लगभग ४-५ वर्ष पहले हमारे परिचित में एक शादी इसी कारण टूटी थी कि लड़के वालों ने दहेज़ नहीं मानागा. लड़की वालों को शक हुआ कि जरूर लड़के में कोई कमी है तभी तो दहेज़ नहीं ले रहे हैं (लड़का सिविल सेवा में था)
अब इसके क्या निदान है. दहेज़ का दानव देने और लेने, दोनों के मन में बैठा है. इसे अब समस्या नहीं सिस्टम मान लिया गया है ये नितांत सही है........क्या करेंगे??
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
माफ कीजिये में ब्लॉग पर देर से आई और इसलिए देर से कमेन्ट कर रही हूँ -
ReplyDeleteमैंने और मेरे पिताजी ने भी प्राण लिया था की उस घर में मेरी शादी नहीं होगी जो लोग दहेज़ मांगेंगे। मेरे ससुराल वालों ने कोई मांग नहीं रखी लेकिन यहाँ बात खत्म नहीं होती। शादी की हर रस्म में लड़की के ही घर से कुछ न कुछ जाता रहा जो मेरे पिताजी ने अपनी ख़ुशी और सक्षमता से किया। मैं नौकरी करती थी इसलिए मैंने अपना खर्चा जहाँ तक हो सका खुद उठाया, कोशिश की पिताजी पर थोड़ा कम भर आये। पर शादी की रस्म से सभी ही वाकिफ हैं।
मुझे लगता है की अगर हमें देहेज को जड़ से हटाना है तो शादी की परंपरा को ही फिर से परिभाषित करना पड़ेगा क्यूंकि कोई कितना भी कोशिश कर ले किसी न किसी रूप में दहेज़ की प्रथा चलती रहेगी। या दूसरा रास्ता है Court Marriage.
mera aisa manana hai ki purush swayam hi dahej ka ichhuk hai tabhi to sabkuchh apni marji se karta hai jab dahej ki baat aati hai to chuppi sadh leta hai. aage aakar mata pita ka virodh kyon nahi karta, aur kehta ki main dahej ke bina shaadi karoonga.
ReplyDelete