December 02, 2009

इतिश्री नारीमुक्ति - सशक्तिकरण प्रकरणं !


समाज का निर्माण नर - नारी दोनों से ही मिलकर हुआ है। परिवार रूपी गाड़ी के दो पहिये स्वीकार किए जाते हैं - दो पहिये जब एक ही आकर, आचार-विचार , व्यवहार और अधिकार के हों तो वह गाड़ी बहुत दूर तक जाकर अपनी मंजिल पा लेती है और यह एक सफल जीवन का मूलमंत्र है। अगर इसके विपरीत चले की दोनों पहियों का आकर , आचार-विचार और अधिकार विलग हों तो वह गाड़ी चलती नहीं है घसीटी जाती है फिर दोनों में से कोई भी असमान हो और त्रसित और शोषित रहे। यह बात दोनों पर ही लागू होती है।

नारी मुक्ति - इस शब्द का भाव यदि समझा जाय तो इससे तात्पर्य उससे घर - परिवार और समाज से बगावत नहीं है, बल्कि उसे साथ पल रही कुरीतियों, विसंगतियों और शोषण से मुक्त कराने की एक मुहिम है। इसके लिए कोई न कोई तो बोलेगा - ऐसा नहीं है की समाज में झंडा लेकर निकला जाएगा, यदि माँ इससे त्रसित है तो हो सकता है की कल उसके बच्चे उसके प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ खड़े हो जाएँ और इन सबसे उसको निजात मिल जाय। होता भी है, जब तक बच्चे सक्षम नहीं होते - सिर्फ देखते हैं और फिर बोलते है। इसके लिए जब एक मंच पर विचार करते हैं तो प्रपंच की संज्ञा दी जाती है। यह तो अपनी अपनी सोच है इसके लिए किसी को रोका नहीं जा सकता है, संविधान ने यह अभिव्यक्ति का अधिकार दिया है। पुरूष नारी के हित की बात नहीं सोच सकता है ऐसा नहीं है , नहीं तो राजा राममोहन राय और महात्मा गाँधी ने नारी के प्रति सोचा ही नहीं होता और वे नारी पुनर्जागरण के प्रणेता न बने होते। वह बात और है की उनके सामने समस्याएं और थीं और आज और हैं।

नारी सशक्तिकरण - क्या है? अपने अधिकारों के प्रति जागरुक होकर जीना। वह अशक्त न कभी थी और न आज है किंतु परिवेश उसको शक्त और अशक्त बना देता है - ' दांतों के मध्य जीभ ' की स्थिति जब होती है तब न वह जी पाती है और न मर पाती है। क्या सोच है कि घर से बाहर निकल कर नारी सशक्त हो जाती है , लेकिन नहीं नौकरी करके भी वह बिचारी ही बनी रहती है बल्कि कई बार तो वह कमाती है और अपनी कमाई को भी खर्च करने का अधिकार नहीं रखती है। बैंक का सारा अधिकारी पति और सास होते है। सारे दिन नौकरी में खटकर भी उसको घर में एक नौकरानी से अधिक हैसियत नहीं मिल पाती है। यह अनदेखा शोषण किसने महसूस किया है?
ऐसे लोगों को सशक्त कराने की मुहिम है नारी सशक्तिकरण। उसके घर को नहीं तोड़ा जा रहा है, उसे अपने एक इंसान होने के प्रति और अपने शोषण के प्रति जागरुक होना चाहिए। उसके दायित्वों से भागना नहीं सिखाया जाता है लेकिन भावात्मक रूप से और अधिकारों के प्रति सशक्त बनने का नाम सशक्तिकरण है। इसके लिए न घर छोड़ने की जरूरत है और न पति और परिवार। अपने घर में किसी बगावत करने की भी जरूरत नहीं है बल्कि अपने पद और गरिमा की रक्षा करना है। उसको अन्याय के खिलाफ बोलने की क्षमता नहीं है तो उसके लिए सशक्तिकरण की जरूरत है।

सारा समाज तो ऐसा नहीं है, कितने प्रतिशत परिवार पूर्णतया पश्चिमी संस्कृति की गिरफ्त में हैं, किंतु जो हैं वे हमारा विषय नहीं है। एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज के निर्माण में नर-नारी दोनों की ही भूमिका बराबर है - दोनों आपस में समझदारी और सामंजस्य का नाम ही परिवार है उसके कुशल एवं सफल सञ्चालन से ही एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज बन सकता है।

इस विषय पर हर बार एक सवाल उठाया जाता है की क्या पुरूष नारी से पीड़ित नहीं है? है पर वह समस्या के निदान खोजने की हद तक नहीं । फिर भी असामान्य स्थिति तो दोनों ही है, कोई भी पीड़ित हो उसके दुष्परिणाम तो समाज को ही भोगने होंगे। साहित्य समाज का दर्पण है तो उसकी विसंगतियों का उल्लेख तो करेगा ही। उसके लिए सबको मिलकर हल खोजना होगा। न की वर्ग विशेष के ऊपर आक्षेप लगा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाय। प्रबुद्ध दोनों ही है - इसके लिए संयुक्त प्रयास और आपसी विमर्श से हल निकला जा सकता है.

6 comments:

  1. बहुत संतुलित आलेख .. अच्‍छा लिखा है !!

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  2. excellent summerization bravo

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  3. जो आप कह रही हैं उसको समझने की जरूरत है ।
    संदर्भ को नजरअंदाज करके कोई पहल सफल नहीं होती ।

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  4. i fully agree with you.yau have made clear everything. thank you.

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  5. आपके इस आलेख से सबकी शंकाएं,दूर हो जानी चाहिए....बहुत ही संतुलित विचार प्रस्तुत किये हैं,आपने...एक ऐसे आलेख की सख्त जरूरत थी...हर पक्ष पर अच्छी तरह रौशनी डाली है.

    शब्दों में क्या रखा है...नारी मुक्ति कह लें या नारी सशक्तिकरण या नारी सेवा...भाव तो एक ही रहेंगे.

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