November 13, 2009

संयुक्त परिवार में बुजुर्ग महिलाओं की स्थिति

संयुक्त परिवार को लेकर आज कल बहुत जागरूकता छिडी हुई है. इसमे कोई संशय नही कि यह हमारी मजबूत सामाजिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण आधार रहा है . माना जाता रहा है की घर में उपस्थित बुजुर्गों और बच्चों जको आर्थिक और मानसिक संबल प्रदान करने के लिए इससे बड़ा कोई साधन नही है .
मगर क्या सचमुच ऐसा ही है ...??
सबसे पहले संयुक्त परिवार में बुजुर्ग महिलाओं की स्थिति पर ही विचार कर लें । तमाम उम्र घर की जिम्मेदारी सँभालने वाली इन महिलाओं का संयुक्त परिवार के नाम पर अधिकतम शोषण किया जाता रहा है ।
क्या कभी आपने इस बात पर गौर किया है ...? नही मानते हैं ना ...बस अपनी कालोनी में बसने वाले कुछ संयुक्त परिवारों की दिनचर्या पर ही नजर डाल लें ...हाँ ...हो सकता है कुछ परिवारों में उन्हें यथोचित सम्मान मिल रहा हो मगर अधिकांश संयुक्त परिवारों में बुजुर्ग महिलाएं शारीरिक नही तो ..आर्थिक और मानसिक रूप से प्रताडित ही होती है । संयुक्त परिवार में रहने का एहसान जताने वाले उनके पुत्र ओर पुत्रवधू उनका भरपूर शोषण करते हैं ।
आज उदहारण स्वरुप आँखों देखे एक परिवार में बुजुर्गों की स्थिति का वर्णन कर रही हूँ । बहुत कुछ अमिताभ बच्चन अभिनीत फ़िल्म बागबां मूवी जैसा ही है । अगर फिल्मकार ये कहते हैं की हम फिल्मे समाज में हो रहे वाकयों पर बनाते हैं तो वे बहुत ज्यादा ग़लत नही होते हैं । इस घटना से तो मुझे ऐसा ही लगता है।
ये कहानी है एक बहुत ही समृद्ध परिवार की । चार बेटे थे उनके जिनमे से एक बेटे की मृत्यु बीमारी से ओर दुसरे की एक्सीडेंट के कारण हो गयी । दोनों ही सरकारी नौकरी में थे तो उनके स्थान पर गयी। अब बचे दो बेटों में से दोनों ही सरकारी नौकरी में उच्च पद पर हैं । उनकी पत्नियाँ भी बैंक में अधिकारी हैं । मैंने हमेशा देखा की वो बुजुर्ग महिला अपनी बहुओं के दुःख सुख में हमेशा काम आती रही हैं विशेषकर प्रसूतिकाल में इतना ध्यान रखती रही हैं की उनकी बहुएं मायके जाने की बजाय ससुराल में रहना ही पसंद करती थी। ये हँसी खुशी का माहौल उनके पति की सरकारी नौकरी से रिटायर होने तक ही रहा । उनके पति की भविष्यनिधि और बाकी जमा राशियों के लिए तो मार काट मची ही, वृधावस्था से अशक्त हुई उनकी जीर्ण शीर्ण काया की देखभाल को लेकर बेटे बहुओं में खूब तकरार होने लगी । आख़िर उनके बेटे बहुओं ने निर्णय लिया की एक माँ को अपने पास रखेगा और दूसरा पिता को । माँ की आँखों का ऑपरेशन एक सामाजिक संस्था के कैंप में किया गया जिससे उनका मोतियाबंद ठीक होने की बजाय और बिगड़ गया और हद तो तब हो गयी जब ऑफिस जाने के समय वे वृद्धा माँ को बाहर से ताले में बंद कर जाने लगे । एक दिन अचानक ही उनके भांजे का उनके घर जाना हुआ । वो दरवाजे पर ताला देख कर लौटने ही वाला था की खिड़की से आवाज लगा कर अपनी स्थिति उसे बताते हुए फूट फूट कर रो पड़ीं । जब दूसरे बेटे को उसने यह सब जाकर उसे बताया तो वो उसे अपने घर ले आया मगर यहाँ भी स्थिति बहुत बढ़िया नही थी। और उनकी ये बहुए बड़ी शान से संयुक्त परिवार के गुणगान करते हुए सामाजिक सभाओं में अपने सास ससुर को साथ रखने पर गर्व जताती रही हैं । इस मानसिक शोषण से उन्हें छुटकारा मृत्यु हो जाने पर ही मिला ।
क्या ऐसे संयुक्त परिवार गर्व करने लायक है ...? क्या यह बेहतर नही होता की ये वृद्ध दम्पति अपने कमाए धन से अपनी सेवा की बेहतर व्यवस्था करते हुए अकेले ही रहते ..??
यह तो एक अकेली ऐसी घटना है ...मगर आए दिन ऐसे परिवारों में बुजुर्ग स्त्रियों की स्थिति मुझे द्रवित करती रही है ...उन संयुक्त परिवारों पर भी एक नजर डालेंगे ...अगली बार ...

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12 comments:

  1. वाणी जी,
    बहुत ही सही विषय आपने चुना है....आज संयुक्त परिवारों में बुजुर्ग महिलाओं की जो हालत है.....उसपर विमर्श होना अत्यावश्यक है....आप सोच नहीं सकती की विदेश में बुजुर्गों के साथ कैसा बर्ताव हो रहा है...बहुत ही ज्यादा दयनीय स्थिति है यहाँ......
    आपका आलेख हमेशा की तरह ज्ञानवर्धक और सार्थक...
    आपको और आपकी लेखनी को प्रणाम....

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  2. अधिकांश संयुक्त परिवारों में बुजुर्ग महिलाएं शारीरिक नही तो ..आर्थिक और मानसिक रूप से प्रताडित ही होती है ।
    बिल्‍कुल सटीक लिखा है .. इधर काफी दिनों से मैं भी इस बात पर गौर कर रही हूं .. संयुक्‍त परिवार बनाए रखने के लिए बुजुर्ग महिलाओं पर अच्‍छा खास दबाब बन जाता है !!

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  3. सिर्फ संयुक्त परिवार पर क्यूँ? वहाँ तो बेगारी से भी लोग देख लेते हैं....पर इस एकल परिवार में इनकी स्थिति वर्कर वाली है,
    ये अपने प्यार,अपने रिश्तों की दुहाई देते हैं, पर जहाँ बेटा-बहु दोनों कार्यरत हैं वहाँ इनकी बुजुर्गियत सिर्फ कर्तव्य तक सीमित है!
    पहले सास,ससुर के साथ वक़्त की पाबंदी , अब बेटे बहु के साथ...........और उस के बाद तो किसी को फुर्सत ही नहीं

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  4. वाणी,
    बिलकुल सही तस्वीर पेश की है, आज संयुक्त परिवार का पर्याय सिर्फ घर में टला न लगाना पड़े. ८०% महिलाएं कार्यरत हैं, कितनी घर में रह कर भी बाहर निकल जाना पसंद करती हैं. बुजुर्गों की स्थिति ऐसी हो जाती है. उनके पैसे पर नजर सब रखते हैं लेकिन सुख और दुःख से किसी को मतलब नहीं है. सब कुछ बदल गया है ये कुलदीपक , इनके लिए जन्म पर थाली बजाने की प्रथा रही है वही अब अपने परिवार से वास्ता रखते हैं. घर में अगर बुजुर्ग है तो सिर्फ रोटी उनको देना अपना धर्म समझते हैं, बाकि फल , मिठाई तो सिर्फ अपने परिवार के लिए लाते हैं. इसके बाद भी घर से बाहर संयुक्त परिवार में रहने की डींग हांकते हैं.

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  5. आप लोग आज युवा हैं आप ने अपने भविष्य को कैसे सुनिश्चित किया हैं । वो जितनी भी महिलाए केवल पत्नी और माँ बन कर खुश हैं { या इस को एक नियति मान कर अपना जीवन यापन करती हैं } अगर दो मिनट अपने भविष्य की और देखे तो वो सब अपने को इस स्थिति मे ही पाएगी । बच्चे हमारा सुख हैं पर हम उन पर आश्रित रहना ही क्यूँ चाहते हैं । क्या हम बच्चो को दुनिया मे इस लिये लाते हैं , बड़ा करते हैं की वो आगे चल कर हम को सहारा दे ?? ये तो एक प्रकार की सेल्फिश्नेस हुई । दुनिया चलती रहे इसलिये नर नारी पूरक हैं यही बार बार दोहराया जाता हैं जब भी नारी सशक्तिकरण की बात होती हैं फिर क्यूँ बुढापा तक आते आते सब अकेले हो जाते हैं ।

    महिला को अपने लिये सोचना होगा और आज की युवा नारी कल इस स्तिथि मे ना पहुचे इसके लिये नारी सशक्तिकरण बहुत जरुरी हैं । जरुरी हैं की आप अपने बुढापे के लिये बचत करे कैसे ? नहीं पता अगर तो फिर खुल कर इस ब्लॉग पर इसके विषय मे बात करे ।

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  6. Vani....di...... bahut achcha laga aapka yeh aalekh.....

    My di.........is great......

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  7. वाणी जी,
    आपने बिल्‍कुल सही कहा है, बिल्‍कुल सत्‍यता के बेहद निकट आपका यह लेख बेहतरीन लगा ।

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  8. महिलाओं की ही नहीं आजकल यही स्थिति पुरुषों की भी है। पहले बच्‍चे कहते थे कि हम आपके पास रहेंगे लेकिन अब कहते हैं कि आप हमारे साथ रहिए। एक डर बैठ गया है, भविष्‍य के बारे में। पहले पिता और बॉस एक ही होते थे मतलब व्‍यापार में। लेकिन अब जहाँ नौकरी है वहाँ बॉस अलग हैं और पिता या माता का वजूद समाप्‍त हो जाता है। बुढ़ापे में वे केवल बोझ बन जाते हैं। एक दौर था जब पिता अपनी सेवानिवृति की कमायी को बेटे को सौंप देता था, लेकिन जब उसके दुष्‍परिणाम आए तब पिता सम्‍भल गए। अब माता के सम्‍भलने की बारी है। प्रत्‍येक माँ इस सत्‍य को जितना जल्‍दी समझे उतना ही फायदा है।

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  9. har tarah ke pariwar aur har tarah kii sthiti hai,
    mahila ho ya purush dono ka yahi haal ho jaata hai par sabhi jagah nahin,

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  10. kuch kamkaji mhilaye to apne bujurgo ko apne svarth ke liye rakh bhi leti hai kintu kuch to sochti hai hmare pas paisa hai hme kisi ki jarurat nahi hai vaise me rachnaji ka sujhav srvopri hai

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  11. This question and problem more or less relates to the patriarchal family structure. Where, a women is supposed to take care of her husbands parents, without a choice and Men do not take care of their own parents but leave all the responsibilities to their wives. Why is that a women has to be blamed for not taking care of her husbands parents? why not to blame those "worthy sons" directly, who in their life time do not even make a cup of tea for their own parents?
    or if men share equal responsibility for their in laws, and these duties flow in both directions, with mutual understanding, situation will be healthy for everyone.

    The other issue again relates to the family values, if a bahu is always viewed as unpaid servant, who is constantly humiliated and all her movements are controlled by in laws, and suffers silently, for years, you can not expect her to have a deep respect and love for her tormentors. In these families women becomes bahu, becoz there is tag of dowry, family status or earning power of women, which all are mean and business like things. Nobody goes out to find a good human being, a good heart.

    So the Jungle rule goes like that, the powerful rules, depending upon the situation.

    The main concern should be how to democratize Indian family structure, so that it can be humane for all its members, women, children, and elderly.

    The second issue also relates

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  12. vani ji aapne bilkul sahi subject chuna hai is pr acche acche logi ki najrein nae jati hai. keep it up. meri badhae aur hardik shubhkamnae swekaar karin

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