यूँ ही चैनल फ्लिक कर रही थी कि देखा एक फिल्म आ रही है,"मोनालिसा स्माईल'...अपनी सहेलियों को SMS करने लगी तो ध्यान आया ब्लॉगजगत पर भी बहुत सारे दोस्त हैं,पता नहीं उन्होंने यह फिल्म देखी है कि नहीं,उन्हें भी इस फिल्म से रु-ब-रु करवाया जाए.यह प्रासंगिक भी है क्यूंकि आजकल ब्लॉगजगत पर बहुत लोग परेशान हैं कि औरतों ने सर पे आँचल और पैरों में पायल से छुटकारा क्यूँ पा लिया?...दरअसल यह बात वेशभूषा बदलने की नहीं,है.दायरे में सीमित उनकी सोच बदलने की है...अपनी अस्मिता तलाश करने की है....अपना अस्तित्व स्थापित करने की है.
अमेरिका के 1950 के दौर की कहानी है और बिलकुल हम से मिलती जुलती.(दुःख होता है,हम 50 साल पीछे चल रहें हैं)मिस वाटसन(जूलिया रॉबर्ट्स) की नियुक्ति लड़कियों के एक कॉलेज में होती हैं.वे पाती हैं,लडकियां बहुत मेधावी हैं,स्मार्ट हैं पर उनकी सोच एक परंपरा की शिकार है.जो कुछ सिलेबस में है,वे उसे तोते की तरह रट जाती हैं.उनकी अपनी कोई सोच नहीं है.लडकियां कॉलेज को टाईम पास की तरह लेती हैं, जबतक उनकी शादी नहीं हो जाती.(कुछ अपने यहाँ की कहानी जैसी नहीं लगती?)
मिस वाटसन उन्हें अपना विचार खुद बनाने के लिए प्रेरित करती हैं.उनमे इतना आत्मविश्वास जगाने की कोशिश करती हैं कि वे अपना निर्णय खुद ले सकें.एक बहुत ही मेधावी छात्र है,जिसे लॉयर बनने की इच्छा है. पर जब मिस वाटसन उस से पूछती हैं कि वो ग्रैजुएशन के बाद क्या करेगी वो कहती है 'I am getting married "
"then ?"
"Then I will b remain married"
लड़कियों का गोल सिर्फ शादी है,वाटसन शादी के खिलाफ नहीं हैं पर वे चाहती हैं कि लड़कियां अपना अस्तित्व तलाशें और पत्नी के अलावा भी उनकी कोई पहचान है,उसे समझें.
वे उस लड़की को law school का फार्म लाकर देती हैं.पर उसका मंगेतर कहता है कि ये कॉलेज घर से काफी दूर है और वह समय पर टेबल पर खाना लगाने नहीं पहुँच पायेगी.जूलिया उसे सात और कॉलेज के फ़ार्म लाकर देती हैं,जो घर के पास है.और कहती हैं कि अब वो दोनों काम एक साथ कर सकती है. पर परंपरा में बंधी लड़की खुद इनकार कर देती है.
दूसरी एक बेट्टी नाम की छात्रा,मिस वाटसन का बहुत विरोध करती है.क्यूंकि उसे लगता है वह लड़कियों को बहका रही हैं.इस लड़की की शादी हो जाती है.वह घर और पति के प्रति पूर्ण समर्पित है.घर और पति ही उसकी दुनिया है.पर पति का कहीं और अफेयर है और वह बहाने बनाकर ज्यादातर घर से बाहर रहता है.जब इसे पता चलता है तो वह अपने माता-पिता के घर जाती है पर उसकी माँ उसे वहां रुकने नहीं देती और कहती है"अब पति का घर ही उसका घर है. माँ उसे समझाती है कि सब ठीक हो जाएगा,बस किसी को कानोकान खबर ना हो "( पता नहीं कितनी भारतीय
लड़कियों ने भी ये सब सुना होगा)
फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण दृश्य है जब बेट्टी अपनी माँ को मोनालिसा की तस्वीर दिखाती है.उसकी माँ कहती है " She is smiling "
बेट्टी पूछती है " I know but is she HAPPY ??
बेट्टी आगे कहती है ,"She looks happy. It dsnt matter.if she is really happy or
not "
बेट्टी डाइवोर्स फाईल करती है और घर छोड़ देती है.कॉलेज की सबसे बदनाम लड़की उसे सहारा देती है.माँ बहुत नाराज़ होती है और तब बेट्टी कहती है ," When You closed the door of my own house where can i go ? "
मिस वाटसन एक प्रोफ़ेसर के करीब आ जाती है,तभी उनका पुराना प्रेमी जिसे वाटसन का यूँ इस शहर में कॉलेज में पढ़ाना बिलकुल पसंद नहीं था,अचानक आ जाता है.और प्रपोज़ कर अंगूठी पहना देता है.पर वाटसन कहती है,"एक अरसे से हमारा कोई contact नहीं और तुम्हारा जब चाहे मेरी ज़िन्दगी में चले आना और जब चाहे चले जाना मुझे मंजूर नहीं..वो शादी से इनकार कर देती है.कुछ दिन बाद प्रोफ़ेसर की असलियत भी खुल जाती है.वह युद्ध के झूठे किस्से सुना war hero बना रहता था.
जाहिर है कॉलेज मनेजमेंट मिस वाटसन के स्वछन्द विचारों को पचा नहीं पाता.और उनका contract रीन्यू नहीं करना चाहता.पर उनके सब्जेक्ट में ही सबसे ज्यादा छात्रों ने दाखिला लिया है इसलिए वह उनपर कई शर्तें लगाता है.कि वे सिलेबस से अलग कुछ नहीं पढ़ाएंगी."....लेसन प्लान पहले से अप्रूव करवायेंगी ...'छात्राओं को कॉलेज के बाहर कोई सलाह नहीं देंगी'.
मिस वाटसन त्यागपत्र दे देती हैं और चल देती हैं ,किसी और कॉलेज की लड़कियों को जकड़न से मुक्त कराने,रस्मो रिवाजों की कुछ और झूठी दीवार गिराने .
सबसे सुन्दर अंतिम दृश्य है जब मिस वाटसन कार में जा रही हैं और सारी लड़कियां ग्रैजुएशन गाउन पहने,कार के आस पास सायकिल चलाती उन्हें उन्हें विदा दे रही हैं.
हमें भी कुछ ऐसे ही 'मिस वाटसन' की सख्त जरूरत है.
"She looks happy. It dsnt matter.if she is really happy or
ReplyDeletenot "
शोध से पता चला है कि मोनालिसा भी हैपी नहीं थी !
देखिए तरह तरह की मोनालिसा
बहुत अच्छा आलेख! यह फ़िल्म मैं ने भी देखी है. इस तरह की अन्य फ़िल्मों के नाम भी हमें आपस में एक-दूसरे को सुझाने चाहिये जो छोटे-छोटे नारी विषयक मुद्दों को लेकर बनी हैं. "स्टेपफ़ोर्ड वाइव्ज़," "शी इज़ द मैन," "नॉर्थ कन्ट्री," "एक्यूज़्ड" इसी तरह की कुछ फ़िल्में हैं, जो मैंने देखी हैं.
ReplyDelete(दुख होता है,हम 50 साल पीछे चल रहें हैं)
ReplyDeleteदुखी होने की कोई बात नहीं....बस आप इसी तरह से भारतीय नारी की सोच और समझबूझ को विकसित करने का बीडा उठाई रहिए......देखिएगा हमारा समाज सिर्फ कुछ ही वर्षों में अमेरिका से 50 साल आगे ही होगा ।
शुभकामनाऎँ कि आप इस महान कार्य में जल्दी सफल हों!!
बहुत ही अच्छा आलेख .
ReplyDeleteफिल्म सन पचास के आस पास की कहानी कहती है . वैसे ही था तब अमेरिका . उस पीढी की नारियों को कुछ जाना भर है , वही बताती भी हैं उस वक्त की मानसिकता ,और कुछ तो उसी को अच्छाई भी बताती हैं .
मैंने तो सिर्फ पिछले पचीस सालों में ही तब से अब तक आये हुए बदलाओं को देखा है और वह सही दिशा में ही है . वह भी एक लिबरल राज्य में रह कर .
सुनता हूँ की अमेरिका की बाईबिल पट्टी अभी भी काफी उसी माहौल में है .जितना ज्यादा ' धर्म ' उतनी ही ' सड़ी मानसिकता ' .
हर तथाकथित 'धर्म ' ही इस पुरुषोचित ' पित्री सत्तात्मकता ' का जिम्मेदार रहा है .
और वही इस मानसिकता का पोषण भी करता है .क्योंकि हर धर्म पुरुषों ने बनाये हैं.
किसी ' मोनालिसा ' की कोई भी मुस्कान असली हो ही नहीं सकती जब तक रूढ़ियाँ ( जो धर्म का सब से बड़ा हिस्सा हैं ) नहीं टूटतीं . नारी को ही यह जंजीरें तोड़नी होंगी ,दूसरे शायद साथ भर दे पायें , जिनमे इंसानियत बाकी हो या हो .
लेकिन फिल्म से ही जान लें की नारियां ही/भी इस रूढी को पुख्ता बनाने का औजार बना दी जाती हैं , रही हैं , जाने अनजाने या अज्ञानता के ही कारन से .
और वह अज्ञानता ' धर्म ' ही उनको,हमको ,सबको इस मानसिकता में धकेलता रहता है, या निकलने निकालने नहीं देता .
इस प्रस्तुति के लिए धन्यवाद .
thanks for wonderful post.
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें।
ReplyDeletewelcome to naari blog rashmi , i am sure we all will learn more from younsters like you. wonderful post and keep writing
ReplyDelete@पं.डी.के.शर्मा"वत्स"
aap kaa vyang samajh aa gayaa haen , shyaad aap ko post ka "sach" pachaa nahin
रश्मि,
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा तुमने पर समझाने वाले के दृष्टिकोण से और समझाने वाले दृष्टिकोण में अगर फर्क हो तो इसकी चिंता हमको नहीं करनी चाहिए. सही दिशा में दिया गया मार्गदर्शन कुछ तो सकारात्मक परिवर्तन लाएगा ही. ऐसा नहीं है कोई भी प्रयास अगर सही है तो सफलता उसकी सुनिश्चित है.
ऐसे ही लिखती रहो.
real good n informative...
ReplyDeleteSmiling Faces does'nt meant that there is absence of sorrow, but it means that they have the ability to deal with them.....
ReplyDeletegood post..
तो फिर रात आपनी पोस्ट लिख कर ही सोई बहुत सुन्दर ढंग से फिल्म की कहानी को प्रभाशित किया है मुझे नहीं लगता कि कोई भी औरत चाहे कितनी भी मुस्कान लिये दिखे मगर अन्दर उसके एक दर्द रहता ही है मेरी एक कविता से कुछ पँक्तियाँ यही कहती हैं
ReplyDeleteकहीं कोई घाव
रिसने ना लगे घाव
वो पी जाती है
इस दर्द से उपजे आँसू
और जोर से
ह्सती है मुस्कराती है
तभी तो शहर की
समझदार ,खुशनसीब
खुशहाल
औरत कहलाती है
मगर कितना महंगा पडता है
खुशनसीब कहलाना
ये सिर्फ वही जानती है
जब भी अवसर मिला तो ये फिल्म जरूर देखूँगी शुभकामनायें।
यह फिल्म तो मै जब देखूंगा तब देखूंगा लेकिन आपके प्रस्तुतिकरण का तरीका मुझे बहुत अच्छा लगा । जो आप कहना चाहती हैं और फिलम कहना चाहती है आपने कह दिया है । धन्यवाद ।
ReplyDeleteachhi jaankari bhara aalekh
ReplyDeleteएक अरसे से हमारा कोई contact नहीं और तुम्हारा जब चाहे मेरी ज़िन्दगी में चले आना और जब चाहे चले जाना मुझे मंजूर नहीं...स्त्री विमर्श जब इस सटीक सोच के साथ सामने आता है, तब विचारों की स्पष्टता और मज़बूती साफ़तौर पर पता चलती है, लेकिन अफ़सोस...अक्सर देह की आज़ादी की लड़ाई के नाम पर स्त्री मुक्ति और स्वतंत्रता के प्रश्न उलझा दिए जाते हैं. वहां भी स्त्री को बस इतना ही तोष मिलता है, वो अपनी देह जहां चाहे, वहां बांट रही है. उसे ये पता भी नहीं चलने दिया जाता कि उपभोगी पुरुष ही है. स्त्री सिर्फ बदला लेने के लिए उकसाई गई है और फिर किसी और बहेलिए का शिकार है. प्रेम का संतोष उसे कहां मिल पाता है. ख़ैर, शायद विषय भटक गया. अच्छी पोस्ट के लिए रश्मि और नारी परिवार को बधाई.
ReplyDeleteफ़िल्म के कथानक को आपने बहुत बेहतरीन अन्दाज़ मे उतारा है और अगर सन्दर्भ भारतीय महिला का है तो बिल्कुल यही स्थिती है. एक बात मुझे लगती है कि जब तक इन्सान महिला हो या पुरुष जीवन के सबसे महत्वपूर्ण निर्णय इस तरह लेगा उसकी हालत सुधरने बाली नही है.
ReplyDeleteवाह बहुत बढिया.अपनी बात को फ़िल्म के माध्यम से बहुत सही तरीके से पहुंचाया आपने. फ़िल्म ज़रूर देखूंगी मैं.
ReplyDeletebahut achchha lekh. naari chetna ko jagaata hua....badhai
ReplyDeleteअब तो यह फ़िल्म देखनी पड़ेगी ।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया पोस्ट है |
ReplyDeleteमैंने ये पिक्चर देखि है और न जाने कितनी बात देखि है , लगता है जैसे हमारी ही खाने हो | जूलिया रेओब्रेट्स का बेहतरीन अभिनय और बहुत ही बढ़िया कहानी | रचना जी , आपके सुब्दर आलेख के लिए धन्यवाद | बिलकुल शै और साफ़ शब्दों में अपनी बात कह दी है आपने |
@abha
ReplyDeleteits written by rashmi not by me