कल की मुक्ति की पोस्ट मे पूछा गया था
तो बात यहीं खत्म करके मैं आप सभी से यह पूछना चाहती हूँ कि क्या बच्चा पैदा करना औरत की कमज़ोरी है? क्या सिर्फ़ इसीलिये औरत को पुरुष से कमज़ोर मान लिया जाये?
नारी और उसका नौकरी
तथा
नारी और उसका केरीयर
दो बिल्कुल अलग अलग बाते हैं । हमको इन दोनों के फरक को समझना होगा । नौकरी कोई भी कर सकता हैं पर करियर सब नहीं बनाते । करियर मे आप को बहुत कुछ खो कर वो पाना होता हैं लक्षित हैं । शादी भी एक करियर होता हैं और इसको पूरी तरह से निभाना पड़ता हैं क्युकी इसकी अपनी जरूरते हैं । कोई भी नारी शादी करके , पारिवारिक सुख उठा कर साथ मे नौकरी तो कर सकती
हैं और कुछ करियर ऐसे हैं जिनको शादी के साथ भी बनाया जा सकता हैं लेकिन कुछ करियर शादी की पारंपरिक सोच के साथ नहीं चल सकते ।
कुछ काम की ट्रेनिंग मे सरकार का बहुत धन खर्च होता हैं और सुखोई विमान उड़ाने की ट्रेनिंग उन मे से एक हैं । अब आप ख़ुद सोचे की अगर एक नारी को ये ट्रेनिंग दी जाये और उसके तुरंत बाद वो गर्भवती हो कर १-१.५ साल के अवकाश पर चली जाए { यहाँ आप को ध्यान देना होगा की सुखोई विमान को चलाने के लिये एक १००% फिट पाइलट की जरुरत होती हैं और गर्भावस्था के दौरान नारी का शरीर और मन १००% फिट नहीं होता } तो जब तक वो वापस आ कर काम शुरू करेगी जो कुछ उसने सीखा था वो भूल चुकी होगी या तकनीक उस से आगे चली गयी होगी ।
करियर का चुनाव बड़ा मुद्दा हैं उन महिला के लिये जो शादी करके पारिवारिक सुख की कामना भी करती हैं । बहुत से करियर ऐसे हैं जहाँ बहुत सी चीजों को छोड़ना होता हैं ।
भारतीये समाज की यही विडम्बना हैं की आज भी औरत की मजबूती या कमजोरी प्रजनन की क्षमता से की जाती हैं । शादी आज भी एक जरुरी चीज़ हैं औरत को औरत समझे जाने के लिये । ये अन्तर बहुत सी बातो मे दिखता भी हैं । समाज मे सिंगल वुमन आजभी ग़लत समझी जाती हैं चाहे उसका करियर कितना भी अच्छा क्यूँ ना हो और यही कारण हैं की बहुत सी महिला पहले शादी कर लेती हैं ताकि उनको सामाजिक अनुमति मिल जाए । लेकिन जब वो करियर मे आगे जाने की सोचती हैं तो उनकी शादी का अंत हो जाता हैं । ऐसे अनेक उदहारण आप को मिल सकते हैं जहाँ शादी नहीं चली क्युकी करियर चल रहा था । किरण बेदी एक ऐसा ही ज्वलंत उदहारण हैं हमारे समाज का और कल्पना चावला दूसरा । किरण बेदी के केस में शादी टूट गयी पर संतान किरण बेदी के पास ही हैं । कल्पना चावला क्युकी नासा मे astronaut थी उन्होने शादी की पर बच्चे की कामना नहीं की और अपना जीवन अपने केरीएर को समर्पित कर दिया ।
गैर पारम्परिक करियर जैसे सुखोई विमान को उडाना और शादी जैसे पारम्परिक करियर को एक साथ निभाना सम्भव ही नहीं हैं । चुनाव का अधिकार समाज नारी को देगा या नहीं प्रश्न ये होना चाहिये।
सुमन जी वाकई आज सही रूप मे नारी के जीवन और उस से जुडी समस्याओं को सशक्त ढंग से उठाया है। समाज सृजन मे नारी को जो कीमत चुकानी पडती है उसे हमेशा नज़र अन्दाज़ कर हर बात के लिये दोशी भी नारी को ही माना जाता है । नारी किसी भी पक्ष मे कमज़ोर नहीं है बल्कि सृश्टी के निरमाण मे उसे भगवान ने जो सहनशीलता और त्याग का वरदान दिया है उसे ही पुरुष समाज ने अपने वर्चस्व को बचाये रखने के लिये मोहरा बनाये रखा। जबकि चाहिये ये था कि इस की समाज को जो देन है उसके लिये उसे सराहा जाता। केवल परिवार के लिये उसे अपने कितने सपने कितनी आकाँक्षाओं का खून करना पडता है। बहुत सुन्दर आलेख है बधाई
ReplyDeleteभारतीये समाज की यही विडम्बना हैं की आज भी औरत की मजबूती या कमजोरी प्रजनन की क्षमता से की जाती हैं ।
ReplyDeleteक्षमा करें, शादी न करने वाले पुरूष व पिता न बन पा रहे पुरूष के बारे में भी समाज कोई अच्छा नहीं सोचता. हाँ ताने खाने में महिलाएं ज्यादा आगे रहेगी.
शादी भी एक करियर होता हैं और इसको पूरी तरह से निभाना पड़ता हैं क्युकी इसकी अपनी जरूरते हैं
ReplyDeleteisi cariyar par to samaj ki adhar shila hai .nari apni prjnna kshmata ko shjta se nibah leti hai to ise uski kmjori bata kar prkrti ki avhelna kar rhe hai .
ये विडम्बना ही है कि नारी की इस सृजनशीलता को उसकी कमज़ोरी माना जाता है. महत्वाकांक्षी महिलाओं के परिवार टूटने के पीछे उनका पति से ज़्यादा सफ़ल हो जाने का अन्देशा भी है, जो पतियों के दिमाग में हमेशा रहता है.
ReplyDeleteनारी की गरिमा माँ बनने में ही है, कैरियर बनाना भी जरूरी है लेकिन जो काम उसके अतिरिक्त कोई कर ही नहीं सकता है तो यह तो उसके लिए सम्मान की बात है. परिवार और विवाह सामाजिक संस्थाएं हैं और इनके निर्माण का दायित्व नर-नारी पर ही है, इसलिए एक स्वस्थ और संस्कारी परिवार के निर्माण के साथ ही कैरियर की उच्चता भी शोभा देती है. अपने दिल की सुनिए क्या अबोध बच्चों को छोड़ कर आप रह सकती हैं, नहीं. मजबूरी की बात और होती है. इसलिए परिवार की प्रथामिकतायों के अनुरूप आचरण में ही हमारी गरिमा है.
ReplyDeleteऔरत को "सुखोई" उड़ना हैं हैं या "परिवार बढ़ाना" हैं ये फैसला लेने का अधिकार क्यूँ औरत को नहीं हैं । उसकी अपनी चाहत को अहमियत क्यूँ नहीं हैं ।
ReplyDeleteदरअसल हमारा सामाजिक ढ़ाँचा ही कुछ ऐसा है कि अधिकारों का बराबरी से कोई बंटवारा ही नहीं हैं।
ReplyDeleteसुखोई उड़ाना नारी की प्रतिबधता पर निर्भर करेगा.
ReplyDeleteयह पोस्ट पढ़ मेरी आँखें यह सोच चमक गयी कि...क्या ही अच्छा हो ,यदि हमारे देश की एक एक स्त्री (किसी भी धर्म जाति या प्रदेश की) कम से कम अगले बीस पच्चीस वर्ष तक न तो विवाह करें और न बच्चे पैदा करे...सिर्फ और सिर्फ अपना कैरियर ही बनाये...सुखोई चलाये,जहाज चलाये,देश चलाये,दुनिया चलाये या जो भी चलाना चाहे चलाये.....शादी या बच्चे पैदा करने के लिए इस अवधि के बाद ही सोचना शुरू करे....तो कितना अच्छा होगा......जनसँख्या समस्या अपने आप हल हो जायेगा...
ReplyDeleteकुछ 'पहरेदारों' को मेरे विचारों पर आपत्ति होगी, उनसे पहले ही विनम्र क्षमा याचना.
ReplyDeleteअच्छा कदम है नियोक्ताओं का, वैसे भी जनसंख्या हद से ज्यादा बढ़ रही है. महिलाओं को करियर में तब तक व्यस्त रखा जाए जब तक की वे माँ बनाने की आयु पार न कर जाएं. महिलाएं भी इसे अपना नैतिक कर्त्तव्य मानते हुए परिवार और मातृत्व के फेर में न पड़कर देश की आर्थिक उन्नति में अपना योगदान दें.
फिर ये नवयुवतियां चाहें तो किसी अनाथ या गरीब बच्चे को गोद ले सकती हैं, इस तेज़ रफ़्तार दुनिया में खुद बच्चे पैदा करके मूल्यवान समय और उर्जा बर्बाद करना किसी भी प्रकार से सही नहीं है.
क्या ज़रूरी है की हर महिला माँ बने? या विवाह करे? बच्चे की सही परवरिश कम से कम सोलह से अट्ठारह वर्ष तक काफी समय और उर्जा मांगती है, आज डबल इनकम सिंगल किड्स फैमली के दुष्परिणाम हर कहीं दिख रहे हैं. व्यस्त अभिभावकों के ये बच्चे बारह तेरह की उम्र में ही हार्ट अटैक. डिप्रेशन, मधुमेह, हायपरटेंशन, ओबेसिटी का शिकार हो रहे हैं. क्यों की माँ भी बिज़ी और बाप भी बिज़ी. बच्चे व्यावसायिक क्रेश और होस्टल्स में सामूहिक रूप से बड़े होते हैं, जो कुछ ज्यादा कमा पाते हैं उनके बच्चों को कामवाली आया पालती है.
मैंने ऐसे लड़के भी देखे हैं जिसके पिता एक बहुरष्ट्रीय कंपनी में बड़े अधिकारी हैं, सातों दिन कम से कम तेरह चौदह घंटे काम करते हैं. माँ अंतर्राष्ट्रीय रूट पर एयर होस्टेस हैं, जो साल के ग्यारह महीने ऑन बोर्ड ड्यूटी पर बिताती हैं. उसके लिए माता पिता केवल बैंक एकाउंट हैं, जिसके माध्यम से उसे इफरात जेबखर्च हर महीने मिल जाता है. पर अपने अभिभावकों को साल दो साल में ही देख पाता है, वह भी ज़्यादातर एकसाथ नहीं. दीवाली वगैरह भी उसकी होस्टल में ही बीतती है.
जिन दम्पत्तियों के पास बच्चे को सही ढंग से पालने के लिए समय और सही भौतिक और मानसिक संसाधन नहीं हों उन्हें बच्चे पैदा करने का अधिकार नहीं होना चाहिए.
ऐसे में आज समय की ज़रूरत है की सरकार जीवन भर अविवाहित रहने का फैसला करने वालों को या संतान न चाहने वाले दम्पत्तियों को पोत्साहन दे, और विवाह व गर्भधारण को हतोत्साहित करे. क्योंकि अगर काम हाथ में लिया है तो ज़रूरी है की उसे अंजाम तक भी पहुंचाया जाए. वर्ना बच्चे को ऐसे पैदा करके इस तरह पलने के लिए छोड़ देने से अच्छा है की माँ बनाने की इच्छा दबा ली जाए, या ज्यादा अच्छा होगा की किसी गरीब बच्चे को स्पोंसर किया जाए.
There is no point in taking only half measures.
सुमनजी ,
ReplyDeleteआपके कथन से सहमत हूँ ...कई करिअर ऐसे हैं जहाँ नारी को अपनी स्वाभाविक मातृत्व की लालसा के कारण छोड़ने पड़ते हैं और ऐसा किया भी जाना चाहिए ....!!
एब इन्कनविनिएण्टी जी से पूर्ण सहमति है।
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