यही हमने अपनी संस्कृति से सीखा है , अतिथि सत्कार की भारत जैसी मिशाल कहीं और नहीं मिल सकती है.
जो यहाँ आता है यही कहता है, किंतु अगर हम ही अपने हाथ से अपने मुंह पर कालिख पोत लें तो हमें कौन क्या कह सकता है? हम स्वतंत्र है और कुछ ही कर और कह सकते हैं। ये संविधान से हमें अधिकार प्राप्त है। हम इस अस्त्र के सहारे बहुत कुछ कर और कह जाते हैं।
काया एनरिक - एक विदेशी लड़की , जो एन जी ओ में काम करने के लिए यहाँ अहमदाबाद आई है। उसके साथ किए गए बलात्कार के असफल प्रयास के मामले की अदालत में सुनवाई और उस विदेशी बाला की इज्जत की वकील के द्वारा उड़ाई गई धज्जियाँ क्या इस बलात्कार के प्रयास से कहीं अधिक नहीं है?
इस देश में इस आधी दुनिया कही जानेवाली मानवजाति के इस हिस्से को इतिहास से ही पूज्यनीय बताया जाता रहा है और सभी वर्गों ने इसको स्वीकार किया है और कर रहे हैं। फिर क्यों उस लड़की की इज्जत को इस तरह से सरेआम तमाशा बना दिया जाता है। वह अपने अपमान और शोषण के विरुद्ध अदालत जाती है तो वहां भी बेइज्जत की जाती है और शब्दों के बाणों से - भरी अदालत में उन बेहूदा सवालों को सुनकर शेष आधी दुनियाँ ठहाके लगाती है। इन ठहाके लगाने वालों के बीच में शेष आधी दुनियाँ सर झुकाए बैठी होती है ,जिसे वे बेइज्जत करने पर तुले होते हैं। वह नहीं हंसती है। क्या उसको हँसी नहीं आती है या फिर अपनी बेबसी पर आंसू बहने के लिए मजबूर होती है।
क्या कोई वकील ऐसे ही सवाल अपनी माँ और बहन से कर सकता है या फिर उसके सामने किए जाएँ तो वह बैठ कर हँस सकता है - नहीं क्यों। क्या उनकी माँ और बहन किसी खास दर्जे की होती हैं। अदालत भी ऐसे बेहूदा सवालों - जिनका की मामले से कोई लेना देना नहीं है चुपचाप सुनती रहती है। क्यों - अरे आँख पर क़ानून के पट्टी बंधी होती है, कान तो खुले होते हैं। अदालत में ऐसे मामलों की सुनवाई के समय बहुत लोग बैठे होते हैं क्यों? क्या वे रिश्तेदार होते हैं वादी और प्रतिवादी के या फिर किसी को बेइज्जत करने के लिए किराये पर लाये जाते हैं।
मैं लानत भेजती हूँ, उस वकील पर जिसका नाम है संजय प्रजापति। वह लड़की जो तुम्हारी भाषा भी नहीं जानती है, उससे क्या पूछ रहे हो उसे नहीं मालूम बस इन ठहाके लगाने वालों को मालूम है या फिर सर झुका बैठी हुई इन महिलाओं को , जो उस समय उससे अधिक अपने को अपमानित होता हुआ महसूस कर रही होती है।
मेरा अनुरोध है की ऐसे मामलों की सुनवाई बंद कमरों में होनी चाहिए और तमाशबीनों को तो बिल्कुल भी अनुमति नहीं होनी चाहिए । अदालत सक्षम है और श्लील और अश्लील शब्दों से वाकिफ भी। उसको अनर्गल सवालों पर आपत्ति करनी चाहिए। ऐसे यह पहला मामला नहीं है। बहुत मामले सामने आते हैं, लेकिन उस विदेशी लड़की की विवशता देख कर अपने पर भी नियंत्रण नहीं रहा।
हमारी न्यायिक व्यवस्थाजनित यह पीडा केवल नारियों की ही नहीं है वरन हर उस तबके की है जो समर्थों के द्वारा शोषित है .आपकी आक्रोशजनित अभिव्यक्ति हर संवेदनशील नागरिक की अभिव्यक्ति है .बहस की शुरुआत अच्छी है पर प्रायः हम बहस में तर्क की जगह कुतर्क अधिक देने लगते हैं .......इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता की मीडिया का एक वर्ग एवं कुछ तथाकथित नारीउद्धारकर्ता ऎसी घटनाओं को चटखारे लेकर प्रस्तुत करते है .उनके लिए यह सर्वाधिक बिकाऊ खबर या मुद्दा होता है. ..इस प्रवृत्ति को भी हतोत्साहित किये जाने की जरूरत है ....बहस में असहमति पर आक्रोशित प्रतिक्रिया भी बहस की सार्थकता को प्रभावित करती है......अच्छे व बेवाक लेखन के लिए आप सराहना की पात्र हैं.
ReplyDeleteकब तक ये सब चलेगा पता नहीं , लगता नहीं
ReplyDeleteकी संवेदना का कोई अर्थ हैं अब
absolutely disgusting and shameful,
ReplyDeleteधन्यवाद इस पोस्ट के लिए,
ReplyDeleteऔर मैं तहे दिल से आपको साधुवाद देना चाहता हूँ इस आवाज को उठाने के लिए और थूकता हूँ उस वकील के मुंह पर जो किसी की इज्जत को उतारने को अपना व्यवसाय कहते है...और माननीय अदालत से अपील करता हूँ कि उस वकील पर अदालत कि अवमानना का मुकदमा चलाए...साथ ही उस बाला की मान हानि करने पर वकील और आरोपियों से हर्जाना दिलवाए...अगर अपना देश छोड़ कर मानवता के नाते समाज सेवा करने विदेश से भारत आई एक लड़की के साथ बलात्कार का प्रयास होता है और फिर भरी अदालत में न्याय के नाम पर फिर से बेइज्जती की जाती है तो अदालतों और नया से लोगों का भरोसा ही उठ जाएगा....