April 03, 2009

राजनीति में आधी आबादी को अभी भी मुकम्मल जहाँ नहीं

( जागरण में प्रकाशित यह रिपोर्ट इतनी प्रभावी लगी कि इसे साभार यहाँ पोस्ट कर रही हूँ )
चुनावी राजनीति में महिलाओं की लगातार बढ़ती हिस्सेदारी और पुरुषों के मुकाबले बेहतर सफलता दर के बावजूद राजनीतिक दल तमाम बहाने बनाते हुए देश की इस आधी आबादी को उतने अवसर नहीं दे रहे जितने उन्हें मिलने चाहिए। लोकसभा चुनावों में महिलाओं की सफलता पर निगाह डाली जाए तो पुरुष उम्मीदवारों के मुकाबले उनकी सफलता का दर ज्यादा है जिसके बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसा उनकी सीमित संख्या में चुनाव मैदान में उतरने के कारण होता है। विशेषज्ञों के अनुसार चुनावों में महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ी है और दूसरे आम चुनाव में जहां कुल उम्मीदवारों में महिलाओं का प्रतिशत 2.96 था वह 2004 में बढ़कर 6.53 प्रतिशत पहुंच गया। लेकिन महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ने के साथ उनकी सफलता दर में कमी दिखती है। महिलाओं की सफलता दर दूसरे आम चुनाव में जहां 46.97 प्रतिशत थी वह 2004 में घटकर 6.53 प्रतिशत हो गई जिसका प्रमुख कारण उनका ज्यादा संख्या में उम्मीदवार बनना है।

भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था महिलाओं की स्थिति के बारे में प्रख्यात समाजसेवी और मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरुणा राय ने कहा कि महिलाएं पहले से काफी आगे आई हैं। दिखने में फर्क आया है, लेकिन अभी काफी जरूरत है। प्रजातंत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के बाबत उन्होंने कहा कि इसके लिए [आरक्षण] कानून बनाने के साथ साथ राजनीतिक दलों की ओर से भी पहल की आवश्यकता है।

राजनीतिक दलों ने भी महिलाओं को अब ज्यादा टिकट देना शुरू किया है। 1999 के चुनाव में राष्ट्रीय दलों ने कुल 104 महिला उम्मीदवार उतारे जबकि 2004 में उन्होंने 110 महिलाओं पर भरोसा किया। राज्यस्तरीय दलों ने भी पिछले दो आम चुनावों में क्रमश: 55 और 66 महिलाओं को टिकट दिया। चुनाव आंकड़ों के अनुसार पिछले चुनाव में देश के करीब आधे राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों से कोई महिला प्रतिनिधि नहीं चुनी गई। हालांकि इनमें कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें एक ही सीट है।
चौदहवीं लोकसभा में सबसे ज्यादा महिलाएं सबसे ज्यादा सांसद भेजने वाले उत्तर प्रदेश से चुनी गईं और इसी राज्य में सबसे ज्यादा 61 महिला उम्मीदवार उतरीं जिनमें 37 की जमानत भी जब्त हुई। दलों की ओर से महिला उम्मीदवारों पर भरोसे के आंकड़े पर यदि निगाह डाली जाय तो पिछले चुनाव में सबसे ज्यादा 45 उम्मीदवार कांग्रेस ने उतारे जबकि भाजपा ने 30 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया था।

विशेषज्ञों के अनुसार महिलाएं वैसे तो आजादी की लड़ाई के समय से ही पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं और संविधान सभा ने जब अपना काम खत्म किया था उस समय उसके कुल 313 सदस्यों में 11 महिलाएं थीं। पहले आम चुनाव से लेकर 14 वीं लोकसभा तक के इतिहास में इस सदन के लिए चुनी गईं महिलाओं की संख्या 19 से 49 के बीच रही है।
सर्वाधिक 49 महिलाएं 13 वीं लोकसभा के लिए चुनी गईं थीं जबकि उनका प्रतिनिधित्व सबसे कम छठीं लोकसभा में था जब आपातकाल के बाद देश में जनता सरकार बनी थी। पिछली लोकसभा में पहले के मुकाबले महिलाओं की संख्या में कमी आई थी और विभिन्न दलों की 45 महिलाएं चुनी गईं ्र जो सदन की कुल सदस्य संख्या का 8.29 प्रतिशत है।

मौजूदा समय में देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर प्रतिभा पाटिल आसीन हैं और कुछ महिलाएं विभिन्न राजनीतिक दलों में शीर्ष पर हैं जिनमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता, तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और भाजश प्रमुख उमा भारती आदि शामिल हैं, लेकिन महिला आरक्षण का महिलाओं का सपना दूर की कौड़ी बना हुआ है। इस स्थिति के बारे में अरुणा ने कहा कि महिलाओं के बारे में निर्णय अब भी पुरुष ले रहे हैं और यह प्रवृत्ति भारतीय घरों से लेकर सार्वजनिक जीवन तक देखी जा सकती है। यह पूछने पर कि आरक्षण से क्या महिलाओं की स्थिति में सुधार होगा उन्होंने कहा कि महिलाएं वंचित हैं और इससे कम से कम उन्हें पांव जमाने की जगह तो मिलेगी। उन्होंने हालांकि कहा कि पंचायती राज में महिला आरक्षण के बाद 'पंच पति' उभरे लेकिन यदि 100 महिलाएं जीतती हैं तो 30 में तो बदलाव आएगा।

तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद लोकसभा के चुनावों में महिलाओं ने कुछ सफलताएं हासिल की हैं जिनमें पश्चिम बंगाल की पासकुड़ा सीट से भाकपा की दिवंगत गीता मुखर्जी, जादवपुर से माकपा की मानिनी भट्टाचार्य, राजस्थान की झालावाड़ सीट से वसुंधरा राजे और मध्य प्रदेश की खजुराहो सीट पर उमा भारती की सफलता उल्लेखनीय है। चौदहवीं लोकसभा में दो महिलाएं ममता बनर्जी और सुमित्रा महाजन ऐसी थीं जिन्होंने छह दफा निचले सदन का चुनाव जीता है जबकि भाजपा की मेनका गांधी ने पांच बार यह सफलता दोहराई है। इतना ही नहीं 14वीं लोकसभा में 13 महिलाएं ऐसी थीं जो 13वीं लोकसभा की सदस्य थीं। हालांकि 13वीं लोकसभा में ऐसी 23 महिलाएं चुनकर आई थीं जो 12वीं लोकसभा की भी सदस्य थीं।

11 comments:

  1. एक सही मुद्दा..नारी को आज भी राजनीती के लिए पुरुषों की तरफ देखना पड़ता है. वक़्त के साथ इसे बदलने की जरुरत है.

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  2. लोकसभा चुनावों में महिलाओं की सफलता पर निगाह डाली जाए तो पुरुष उम्मीदवारों के मुकाबले उनकी सफलता का दर ज्यादा है....पर क्या करें लोकतंत्र में सफलता नहीं सर गिने जाते हैं ??

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  3. पंचायती राज में महिला आरक्षण के बाद 'पंच पति' उभरे लेकिन यदि 100 महिलाएं जीतती हैं तो 30 में तो बदलाव आएगा।
    _____________________________
    Bat men dam hai.

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  4. आज राजनीति में महिलाएं भले ही कम हैं, पर जहाँ भी हैं प्रभावी हैं. यदि इसके बावजूद वो महिलाओं को उनका वाजिब हक नहीं दिला पा रही हैं तो उन्हें भी कटघरे में खडा करना होगा.

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  5. साभार ही सही पर उम्दा पोस्ट है.अब देखिये इस चुनाव में नारियां कितनी उभरकर सामने आती हैं?

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  6. सही मुद्दा उम्दा पोस्ट है....

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  7. bahut sahee . jab tak janpratinidhitv me ,fark naheen padega kafee cheejen sambhav hee naheen hain.

    apne blog rajsinhasan par ' RAM KEE VYAKTIPAREEXA' LIKH RAHA HOON KRAMSAH . NAREE VIMARSH SE JUDA HAI . rajsinhasan.blogspot.com

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  8. इस पोस्ट को पढ़कर लगता है की हम भले ही प्रगतिशीलता का कितना भी ढोल पीट लें पर अभी भी हमारी आधी आबादी बहुत पिछड़ी है. बेहतर होगा हम इस पर सोचें.किसी रचना को मात्र टिपण्णी के बाद भूल जाना सार्थक नहीं लगता, उसमें निहित भावनाओं को समाज की संवेदनाओं से जोड़ने की भी जरुरत है. वाकई आकांक्षा जी इस साभार पोस्ट के लिए बधाई की पात्र हैं.

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  9. इस पोस्ट को पढ़कर लगता है की हम भले ही प्रगतिशीलता का कितना भी ढोल पीट लें पर अभी भी हमारी आधी आबादी बहुत पिछड़ी है. बेहतर होगा हम इस पर सोचें.किसी रचना को मात्र टिपण्णी के बाद भूल जाना सार्थक नहीं लगता, उसमें निहित भावनाओं को समाज की संवेदनाओं से जोड़ने की भी जरुरत है. वाकई आकांक्षा जी इस साभार पोस्ट के लिए बधाई की पात्र हैं.

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  10. This comment has been removed by the author.

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  11. बेहद ज्वलंत मुद्दा है....नारी का हर घर में प्रतिनिधित्व है, फिर राजनीती में क्यों नहीं??

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