हम संकल्प करते हैं कि नारी को घरेलू हिंसा से बचाया जाए, लेकिन कभी यह भी सोचा है कि किस तरह से, कितने घरेलू हिंसा के मामले सामने आते हैं। सब तक पानी सिर से नहीं गुजर जाता , वह सब कुछ सहती रहती है और वे घर से कितना निकल पाती हैं, पहरे बैठे हुए हैं उनके लिए। कभी कभी तो ताले में बंद भी कर के रखा जाता है। जो घर से बाहर निकलती हैं , वे घर के स्थायित्व , सामजिक सम्मान और बच्चों के मुंह देखकर खामोश रहती हैं। रामायण युग कि सीता से लेकर आज की सीतायें निर्दोष होकर भी खामोशी से सब कुछ सह रही हैं।
आज सवाल इस बात का है की आत्मनिर्भर और उच्चपदस्थ महिलायों में कितनी ऐसी हैं - जिन्हें अपने वेतन को इच्छानुसार बिना किसी रोका-टोकी के खर्च करने का हक़ है? चाहे वे डाक्टर , इंजीनियर , प्रोफेसर या अन्य पदों पर। उनके प्रतिशत अँगुलियों पर गिने जा सकते हैं। वे उत्पीडन के तमगे से बाहर हैं - वे आत्मनिर्भर हैं - वे एक प्रतिष्ठित स्थान रखती हैं। किंतु ऐसा प्रतिशत भी कम नहीं है, जहाँ उन्हें अपना पूरा वेतन पति या सास -ससुर को ही देना होता है। फिर उनको मिलता है मात्र जेबखर्च। बैंक से निकालने के नाम पर मात्र चैक पर साइन करने होते हैं। कहाँ है हमारा नारी सशक्तीकरण का उद्देश्य ? क्या हमें मुंह नहीं चिढा है ? हम कलम चला कर सिर्फ मुद्दों को उठा सकते हैं, उनका हल तो यह समाज खोजेगा और समाज किन लोगों से बना है - क़ानून भी इसे नहीं खोज सकता है।
तुलसीदास जी की यह पंक्तियाँ सदियों पहले भी शायद आज की कहानी कहने में सक्षम थीं और आज भी हैं -- "नारी न मोहि नारि के रूपा" नारी - चाहे जिस भी वर्ग की हो - आज भी पीड़ित है और उसके उत्पीड़न के कारण और स्वरूप कुछ भी हो सकते हैं। इसी उत्पीड़न के खिलाफ जंग छेदी गई है - विभिन्न संस्थाओं और समूहों के द्वारा। नारी ही तो नारी सशक्तिकर्ण की जंग लड़ रही है, किंतु इस नारी उत्पीडन की जनक नारी ही क्यों बन रही है। ९०% मामलों में नारी उत्पीडन किसके द्वारा होता है - सास, भाभी, ननद, जेठानी, सौतेली माँ - माँ और बहन भी इसका अपवाद नहीं है। ससुर , जेठ, देवर , नंदोई,पति - पिता ,भाई या शरणागत का प्रतिशत मात्र १०% ही होता है।
आज नारी अपने उत्पीडन के खिलाफ आवाज उठाती है, समाज उसे कितना सम्मान देता है? माँ के घर में ससुराल से आई हुई लड़की में कमियां खोजी जाती हैं॥ उसकी संबेदनाओं और झेले गए कष्टों से किसा का सरोकार नहीं होता है। बेटी की जगह तो ससुराल में ही होती है -न सिर्फ समाज के लिए नहीं बल्कि घर में भी यही धारणा बनी हुई है। वह ससुराल में कष्ट सहकर रहे क्योंकि अभी छोटी बहनों की शादी होनी बाकि है। यह एक दलील है, माँ बाप की।
'रेनू' ससुराल में जला दी गई, विद्रूप चेहरा लेकर और गोद में ६ महीने के बेटी लेकर माँ के घर आ गई। घर-घर काम करके अपना खर्च निकालती है - शेष बहनें पढ़ती है, माँ भी काम करती है, किंतु 'रेनू' घर के सारे काम के बाद दूसरों का काम करने जाती है। दोहरा भार उठाये जिसके हाथ जले होने के कारण पूरे तरह से मुड़ भी नहीं पाते हैं। उसके बाद भी उसके विद्रूप चेहरे को देखकर लोग काम पर भी नहीं रखते हैं? माँ - बाप, अपने घर में शरण देने की पूरी कीमत घर के सारे काम करवा कर वसूल करके भी अहसान दिखाते हैं।
'दीपा ' सम्भांत परिवार की बहू है - महानगर की लड़की एक कसबे में बहू बनाकर भेज दी गई। आत्मसात नहीं कर पायी कस्बाई संस्कृति और कई बार मायके बिना बताये चले गई , फिर वापस भेज दी गई। दो पुत्रियों की माँ अपनी इन हरकतों के कारण पति की नजरों में इतनी गिरा दी गई की परित्यक्ता होकर घर में रहती है। न किचेन में जाती है और न उसके हाथ का खाना पति खाता है। सिर्फ 'मेट' बनकर रह गई है 'अपने ' ही घर में। घर में इसलिए है क्योंकि प्रतिष्ठित परिवार की बहू जो है।
बडे घर की कीमत चुकाती हुई - 'रम्या'। खूबसूरत रम्या निम्न मध्यम वर्गीय परिवार की बेटी थी। बडे परिवार ने उसके सौन्दर्य पर रीझ कर उसे बहू के लिए चुना। माँ - बाप शायद सपने में भी ऐसा घर न खोज पाते । सारी शादी के लडके वालों ने उठाया क्योंकि करोड़पति परिवार जो था - सबने भूरि-भूरि प्रशंसा की । रम्य के भाग्य और ससुरालवालों की सहृदयता की बस कमी थी तो यह की वह एक गूंगे-बहरे पति की पत्नी बनकर आई थी। बहुत सारे नौकर - चाकर है घर में - लेकिन रम्या 'हैड' की तरह सारे दिन उनके पीछे पीछे लगी रहती है , काम करवाने के लिए भी एक आदमी चाहिए। सारी विरासत के मालिक जेठ जी है सो जिठानी भी मालिकिन से कम नहीं । माँ के घर खुली हवा में कुछ घंटे जाने के लिए भी तरसती है। जब कभी नसीब होता है तो गाड़ी सुबह छोड़ आएगी और कुछ घंटे बाद ले आएगी। इसे क्या रूप देंगे हम उत्पीड़न का। सब सुख तो हैं, नौकर चाकर गाड़ी बंगला पर नहीं है तो कि अपनी बात भी अपने पति से नहीं कह सकती है। जेवरों और भारी-भारी साड़ियों से लड़ी नौकरानी ही तो है वह।
क्या कोई क़ानून उन्हें उनके इस मानसिक उत्पीडन से निजात दिलवा सकता है या इसको क्या नाम दिया जाय। एक सामान्य नारी जीवन में इसे सुखी जीवन तो नहीं कह सकती है।
आज नारी अपने उत्पीडन के खिलाफ आवाज उठाती है, समाज उसे कितना सम्मान देता है?
ReplyDeletebilkul sahii kehaa apney
very correct rachna jee !
ReplyDeletesatish ji yae post rekha ji ki haen
ReplyDeleteअच्छी तहरीर है...समाज में जागरूकता की ज़रूरत है...
ReplyDelete@क्या कोई क़ानून उन्हें उनके इस मानसिक उत्पीडन से निजात दिलवा सकता है या इसको क्या नाम दिया जाय। एक सामान्य नारी जीवन में इसे सुखी जीवन तो नहीं कह सकती है।
ReplyDeleteबाद की बात पहले - नहीं इसे सुखी जीवन किसी रूप में भी नहीं कहा जा सकता.
कानून तो बहुत हैं. नारी अधिकार आयोग भी हैं. पर यह स्वयं में कुछ नहीं कर सकते. कुछ दिन पहले मैंने टीवी पर देखा कि एक व्यक्ति संजय दत्त से शिकायत कर रहा है कि उसकी पत्नी ने उसे थप्पड़ मारा और अब वह उसे तलाक देना चाहता है. यह सुनकर संजय ने भी उसे थप्पड़ मार दिया. इस पर वह व्यक्ति बोला, 'सोरी भाई'. संजय ने गुस्से में कहा, मैंने मारा तो 'सोरी भाई' और बीबी ने मारा तो तलाक. शायद यह थप्पड़ नारी को उसके इस मानसिक उत्पीडन से निजात दिलवा सकता है.
आज आवश्यकता है हमें अपना दृष्टिकोण बदलने की. हम अपनी दृष्टि को बदलें, सोच को बदलें. तभी समाज में फैली बुराइयाँ समाप्त होंगी और हम सम्मान से जी सकेंगे. सबसे पहले हम महिलाओं के एसे दृष्टिकोण को बदलें जो अपनी ही जाति पर अत्याचार कर रही हैं. इस संसार में अकेली रम्या ही नहीं,और भी अनेक रम्या हैं, जो समाज में बाहर से तो सुखी दिखाई देती हैं, लेकिन अंदर से टूट चुकी होती हैं. इस टूटन को हमें पहचानना है और इसके दोषी लोगों को दंडित करने के लिए आगे आना है. इसमें जितनी ग़लती रम्या की जिठानी, सास,और ननद की है, उतनी ही रम्या के माता-पिता की भी है कि उन्होंने बिना सोचे-समझे, बिना बिटिया की इच्छा को जाने ऐसे घर में शादी करदी., जहाँ वह मात्र घर की चौकीदार बनकर रह गई है.
ReplyDeleteजब तक हमारे मन से धन की लालसा समाप्त नहीं होगी,तब तक इसी तरह उत्पीड़न सहती रहेगी नारी. अतः हमें समाज को अपना नजरिया बदलने के लिए प्रेरित करना होगा ! इसलिए मैं कहना चाहूँगी--
सोच को दायरा कुछ नया और दे
इस अँधेरे को मन का दिया और दे
धन के लोभी से यह बात पूछे कोई
दान दी जिसने बेटी वो क्या और दे !
डॉ. मीना अग्रवाल
मीनाजी,
ReplyDeleteआपकी पंक्तियाँ बहुत ही मार्मिक हैं लेकिन पता नहीं क्यों ये लड़के वाले क्या सोचते हैं कि वेे जो लड़की ब्याह कर लाये हैं, वह संवेदनाविहीन एक चलती फिरती मशीन है. अपने पैसे के बल पर कुछ भी खरीद सकते हैं.
माँ-बाप क्या करें , समाज उन्हें जीने नहीं देता है और समाज बनता किससे से है हमसे ही न.
फिर किसे दोष दें?
औरतों के बारे मे पहले औरत को ही समझना पडेगा औरत समाज की स्थापना करती है।और बहुत कम पुरुष ऐसे होंगे जो खुद पुरुष प्रधान समाज का हिस्सा नहीं होगे और औरत की तुलना पुरुषों से अधिक मानते है।औरत ईश्वर के बाद इस ससांर की निम्राता है पुरुष को बनाने वाली औरत है।इसलिए उसकोो सममान दो
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