September 30, 2008

ये भेद-भाव मिट सकता है अगर...

स्त्री-पुरुष के बीच खीचीं 'असमानता की विभाजन' रेखा को अब खत्म करने की आवश्यकता है। खैर, हम यह स्वीकारते हैं कि पुरुषों का स्त्रियों के प्रति जो व्यवहार या आचरण रहा है, उसे एकदम से खारिज करना हर स्त्री के लिए संभव नहीं होगा। सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक क्षेत्र में हर कहीं वो पुरुषों द्वारा छली और शोषित की जाती रही है। सदियों से पुरुष ने स्त्री को जो जख्म दिए हैं, उन्हें विस्मृत कर पाना, उसके इतना आसान नहीं। लेकिन इन तमाम बंदिशों और शोषण की व्यथा-कथाओं को दरकिनार करते हुए, अगर स्त्री-पुरुष एक दूसरे के संघर्ष में एक साथ आकर खड़े होते हैं, तो इससे बहुत सारी पुरानी वर्जनाएं और स्थापनाएं एक-साथ टूट सकेंगी। इनका टूटना एक नए स्त्री-पुरुष समानता के समाज का द्योतक भी बन सकता। जोकि निश्चित ही फायदेमंद होगा।
क्या आपको नहीं लगता कि जब हमारे आस-पास इतनी तेजी से बदलाव हो रहे हैं, हर रोज कुछ न कुछ नया आ रहा है, तो क्या इस रिश्ते में एक नया बदलाव नहीं आना चाहिए? जब हम इस सच से इंकार नहीं कर सकते कि स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं, फिर एक-दूसरे को मजबूत आधार देने में हमें परेशानी क्यों होती है! ऐसा मत समझिए कि अड़ियल केवल पुरुष ही होते हैं, अड़ियल स्त्रियां भी होती हैं।
अगर हम यह सोचती हैं कि हम पुरुषों को कोसकर स्वयं को बहुत बड़ी क्रांतिकारी महिला सिद्ध कर लेंगी, तो मेरे विचार से यह सोच बेमानी ही है। दूसरी तरफ पुरुष अगर यह सोचते हैं कि वो हर स्तर पर स्त्री को दबाकर ही रखेंगे, तो यह उनकी खुशफहमी भर है। दोनों की अपनी-अपनी जिद्द है। लेकिन इस जिद्द का अगर हम सही जगह और सही अर्थों में उपयोग कर सकें, तो शायद ज्यादा बेहतर होगा।
मैंने तो स्त्री-विमर्श भी काफी पढ़ और जानकर देख लिया, मगर वहां मुझे सिर्फ पुरुषों के खिलाफ विष-वमन ही दिखाई पड़ा, कहीं कोई सार्थक बात पढ़ने-समझने को नहीं मिली। स्त्री-विमर्श में स्त्री-पुरुष के बीच समानता की बात कहीं नहीं कही गई है। अगर स्त्री-पुरुष को वैचारिक, सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक विकास करना है, तो एक-दूसरे को समझ कर चलना ही पड़ेगा। हम उन्हें कोसें, वो हमें कोसें, यह कोसा-कासी किसी भी समस्या का हल नहीं निकाल पाएगी। रास्ते तमाम निकल सकते हैं, पर उसके लिए स्त्री-पुरुष दोनों को ही अपने-अपने अहमों का त्याग करना होगा। पुरुष के पास उसका वर्चस्व है, जिससे वो महिला को दबाकर रखना चाहता है। साथ ही, स्त्री को भी पुरुष के प्रति अपनी एकरूपी अवधारणाओं को बदलना होगा।
मैं यह मानती हूं कि हर पुरुष एक जैसा नहीं होता। हर स्त्री भी एक जैसी नहीं होती। अगर दोनों ही अपनी-अपनी खामियों-खराबियों पर थोड़ा-थोड़ा पुर्नविचार कर लें, तो ये भेद-भाव निश्चित ही मिट सकता है।

5 comments:

  1. समानता का यही अर्थ है, समान जिम्मेदारियाँ, समान अधिकार, बराबरी का व्यवहार।

    ReplyDelete
  2. अनुजा जी की बात सही है और मैं सहमत हूँ । हमारा समाज पुरूष प्रधान रहा है और पुरूष हमेशा से ही स्त्री पर शासन करना चाहता है पर समय बदल रहा है अब ऐसा कम ही होगा। आप का विचार अच्छा है गौर करें तो।

    ReplyDelete
  3. अनुजा जी की बात सही है और मैं सहमत हूँ । हमारा समाज पुरूष प्रधान रहा है और पुरूष हमेशा से ही स्त्री पर शासन करना चाहता है पर समय बदल रहा है अब ऐसा कम ही होगा। आप का विचार अच्छा है गौर करें तो।

    ReplyDelete
  4. मैं द्विवेदी जी की बात से सहमत हूँ. मैं भी यही मानता हूँ.

    यह बात भी सही है कि हमारा समाज पुरूष प्रधान रहा है और बहुत से पुरूष हमेशा से ही स्त्री पर शासन करना चाहते रहे हैं. पर यह बात हर पुरूष पर लागू नहीं होती. लेख में जो कहा गया है वह सही है, पर यह सब पूरे पुरूष वर्ग पर लागू नहीं होता. सारे पुरुषों को कटघरे में खड़ा कर देना उचित नहीं है. इस आशय से लेख में कुछ संयम की जरूरत है.

    ReplyDelete
  5. अनुजा जी की बात सही है और मैं सहमत हूँ

    ReplyDelete

Note: Only a member of this blog may post a comment.