August 04, 2008

अपने लिये भी न जिये तो क्या जिये?

अपने लिये जिये तो क्या जिये? और यदि अपने लिये भी न जिये तो क्या जिये? अपने लिये जीना बहुत मुश्किल भी होता है। नंदिता अच्छी-खासी, पढ़ी-लिखी, अप-टू-डेट है, वो नौकरी करती थी, वो बेहतरीन ड्राइवर थी, किसी के साथ कुछ गलत हुआ तो वो उसके लिए लड़ सकती थी, लेकिन अचानक तेज़ तर्रार नंदिता बदल गई। ज़िंदगी की दूसरी पारी यानी शादी के साथ ही वो तेज़-तर्रार लड़की से घर के झंझटों से जुड़ी औरत में तब्दील हो गई। नौकरी छूटी, आत्मविश्वास टूटा, पति ही ज़िंदगी बन गया, पति का इंतज़ार ही उसकी 24x7 ड्यूटी हो गई। फिर बहू-सास-ससुर-ननद-देवर गाथा शुरू हो गई। कुछ ऐसा हुआ जैसे कि सरपट भागती मेट्रो ट्रेन अचानक मुड़ी और मालगाड़ी में तब्दील हो गई। और ये सिर्फ नंदिता के साथ नहीं होता। अब उसके पास अपने खातिर जीने के लिए कुछ भी नहीं। मतलब ये नहीं कि शादी के बाद ज़िंदगी में परिवर्तन ऐसे ही होता है। इसका मतलब ये भी नहीं कि नंदिता पर चारों तरफ से दबाव पड़ा और वो बेचारी बन गई। दरअसल दिक्कत नंदिता के साथ ही थी। उसने अपने लिए जीना छोड़ दिया, दूसरों के लिए जीना शुरू कर दिया। सुबह उठने से रात सोने तक का वक़्त कोई और तय करने लगा, उसने ऐसा करने दिया। धीरे-धीरे उसने अपनी पहचान खत्म होने दी। इसका मतलब ये भी नहीं कि नंदिता नौकरी कर रही होती तो बेहतर स्थिति में थी। दरअसल सारा मतलब सोच से है। सोच बदल गई। ज़िंदगी का नज़रिया बदल गया। हमारी माओं-दादियों-बुआओं-दीदीयों के किस्सों से चली आ रही ग़ुलाम मानसिकता कहीं न कहीं दिमाग़ की किसी कोशिका में छिप जाती है। नंदिता मान बैठी कि ऐसा ही होता है। अपनी ख़्वाहिशों के लिए जिद करना उसने छोड़ दिया। अपना नज़रिया उसने छोड़ दिया। आशंकाएं और डर बाकी दूसरी चीजों पर हावी होने लगे। उसके फैसले कमज़ोर होने लगे। उसकी सोच कमज़ोर होने लगी। नंदिता जो बेहतरीन ड्राइवर मानी जाती थी अब ड्राइव करने से भी कतराती है। उसे डर लगने लगा है। वो अपने लिए जीना छोड़ चुकी है।
ड्राफ़्ट

5 comments:

  1. हम तो 33 बरस से शोभा को वाहन चालन सिखाना चाहते हैं सीखने से इन्कार कर दिया है। हाँ घर चलाना कोई उस से सीखे। वहाँ हमारी भूमिका केवल बस कंडक्टर की है। बस तेल के पैसे दिए जाओ।

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  2. Hmmm...achha analyse kara hai aapne...kise blame karen...hame koi lachar nahi banata ahi balki ham khud hi zimmedar hein apne lachari ka.


    'हम अपने पैरों में जाने कितने भंवर लपेटे हुए खड़े हैं....'

    www.rewa.wordpress.com

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  3. कहीं कहीं वक्त रुक जाता है कहीं कहीं आगे चलता है ..और यह अपने ऊपर है कि हम उसके साथ कैसे चलते हैं ? यदि हम जब तक ख़ुद को एक बेचारा समझते हैं तो दुनिया भी वही आपको कहती है समझती है ,पर जहाँ आप अपने अधिकारों के प्रति सजग होते हैं और एक अपनी पहचान बनाते हैं वहीँ आप दुनिया को अपने होने का मतलब समझा देते हैं ....

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  4. rajnu ji ne jo kaha hai...
    apki baat ko sport kerte hue...
    bilkul sahi kaha hai...
    wakat ke saaht chalana hi hoga...
    yahi wakat ki mang hai
    Manivnder

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  5. हर व्यक्ति का पहला कर्तव्य अपने लिए जीना है. सब अपना जीवन जी रहे हैं. दूसरों के लिए जीने में अपना जीवन जीना छोड़ देना ग़लत है. नंदिता की कहानी दुर्भाग्यपूर्ण है. उसके परिवार ने एक तरह से उसके साथ अन्याय किया. मुझे एक विज्ञापन की याद रही है. उस में नंदिता जैसी एक नारी है जो चकार्घिन्नीं की तरह इधर से उधर नाच रही है. सब तरफ़ से उसे हुक्म मिल रहे है, यह लाओ, यह करो, मेरी चाय कहाँ है? मेरी पेंट प्रेस हो गई क्या? मेरा नाश्ता कहाँ है? यह सब देख रहे हैं एक बुजुर्ग सज्जन (शायद उस के ससुर जी). अचानक वह उठ खड़े होते हैं और कहते हैं, 'बंद करो यह सब, वह कोई नौकर नहीं है तुम्हारी, अपना काम अपने आप करो'. यह याद नहीं आ रहा किस बस्तु का विज्ञापन था पर बात याद रह गई.

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