नारी को कमजोर बनाती उसकी सोच की " ये काम क्योकि हम सालो से कर रहे हैं इस लिये ये काम नारी का काम हैं और इस लिये ये निम्न क्षेणी मे आता हैं . ये हमारा पूर्वाग्रह हैं कि क्योकि हम सालो से ये करते रहे रहे हैं ये निम्न क्षेणी चला गया हैं . और क्योकि हम सालो से ये करते रहे रहे हैं इस लिये हम इसको छोड़ कर ही आगे जा सकते हैं " खाना बनाना और उसमे प्रवीण होना ऐसा काम हैं जिसमे जितनी महारथ हो जाए उतना बढिया . नारी बरसो से रसोई संभाल रही हैं अब अगर वोह mutidimensional task करती हैं और समय नहीं पाती की खाना बना सके तो इसके लिये उसके मन मे ना तो कोई गिल्ट होना चाहीये और इसके साथ साथ उसके परिवार वालो को भी ये नहीं मानना चाहीये की " ये उसी का काम हैं " लेकिन अगर वह बाकी काम को साथ खाना बनाना भी करना चाहती हैं तो ये उसके एक्स्ट्रा स्ट्रोंग होने का सबूत हैं । काम का विभाजन समस्या नहीं हैं . समस्या हैं " सोच " कि काम का विभाजन हो लिंग भेद के आधार पर .
"घर की समस्याओं का हल घर के बाहर तलाश रही है. "
ये कह कर आपने मूल समस्या को दर किनार कर दिया . समस्या हैं कि क्या "घर " केवल नारी की जिम्मेदारी हैं , क्या उसको बनाए रखना नारी का काम हैं . अगर कोई भी ये सोचता हैं तो उसका मानसिक मंथन का आधार लिंग भेद हैं . घर अगर नारी और पुरूष से बनता हैं , अगर वह एक दुसरे के पूरक हैं तो फिर ये प्रश्न ही क्यों "घर की समस्याओं का हल घर के बाहर तलाश रही है."
अगर कोई भी ये बात कहता हैं की " घर से बाहर निकल कर घर की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता." तो कही न कही वह ये जरुर मान रहा हैं की "नारी / औरत " को घर से बाहर नहीं निकलना हैं , समस्या का समाधान अगर घर मे होता तो नारी सशक्तिकरण की जरुरत ही ना होती , आर्थिक रूप से सुध्ढ़ होने की जरुरत ना होती .
सब को ये समान अधिकार हो की अपनी पसंद का काम कर सके . जहाँ नारी को ये अधिकार नहीं दिया जाता हैं वहां उसकी सुरक्षा के लिये उसके किये हुआ हर काम का आर्थिक मूल्य हो तो ग़लत क्या हैं ?? कब तक स्त्री को ये सुनवाते रहेगे की "जाओ खाना बनाओ मै कमा कर आया हूँ " " सारा दिन घर मै गैप मारती हो बाहर जा कर कमा कर लाना पडे तो समझ आयेगा "
घर की समस्याओं का हल घर के बाहर ही हैं और मिलेगा भी क्योकि नारी का कूप मंडूक बने रहने का समय ख़तम हो गया हैं . अपने अधिकारों के प्रति सजग होना बहुत जरुरी हैं .अधिकार समानता का ५०% की हिस्सेदारी का तकलीफ और आराम दोनों मे .
रचना जी
ReplyDeleteघर की समस्याओं का हल बाहर जरूरी नहीं है। घर में रहे या बाहर ये उसकी अपनी सोच है। बस नारी को अपनी आज़ादी खुद अर्जित करनी है। मेरे घर में मेरी भाभियाँ नौकरी नहीं करती लेकिन वे मुझसे भी ज्यादा स्वतंत्र हैं और मेरे साथ ऐसी कई महिलाएँ नौकरी करती हैं जिनको आज भी पति की ज्यादती सहन करनी पड़ती है। नारी को अपने स्वाभिमान की रक्षा स्वयं करनी होगी उनपर कोई दबाव नहीं डाल सकता । अन्याय घर में हो या बाहर उसका विरोध करो ।
शोभाजी से सहमत हूं.विस्तृत सोच और आत्मविश्वास के जरिये ही नारी आज़ादी की जंग लड सकेगी,चाहे घर में रहे या बाहर.हां उसे यह विश्वास घर वाले ही दिला सकते हैं कि वो जो भी कार्य(घरेलू या बाहर का) कर रही है, वो गौरवपूर्ण है,थैंकलेस नही.
ReplyDeleteमैं आंशिक रूप से शोभा जी और इला से सहमत हूँ। लेकिन जब तक नारी कम से कम इतना न कमाए जिस में वह आत्मनिर्भर हो सके और उसे अपनी कमाई पर पूरा अधिकार भी हो तब तक पूर्ण स्वतंत्रता संभव नहीं है। पिता, पति, पुत्र, भाई या मित्र के साथ अपना सामुहिक निवास बनाना एक प्रकार का समझौता है। समझौता तब होता है जब दोनों पक्ष कुछ न कुछ एक दूसरे को देते हैं। इस समझौते में कुछ तो स्वतंत्रताएँ हमें छोड़नी ही पड़ेंगी और कुछ दायित्व तो उठाने ही होंगे। लगता है विवाह को नए रूप में परिभाषित होना शेष है। इस के साथ ही नारी-पुरुष के अन्य संबंधों को भी।
ReplyDeleteघर सबसे मिल कर बनता है और काम घर का सब मिल कर करे तभी सही है और बाहर किस के पास समय की कोई दूसरों की समस्या का हल तलाश करे वैसे ही मुझे लगता है की घर हो या बाहर सब तरफ़ वैसे ही बहुत समस्या हैं . और सबको अपने तरीके से अपनी समस्या अक हल तलाश करना है .शोभा जी ने सही कहा कि जो भी करे स्वाभिमान के साथ करे ...जिंदगी की गाड़ी तो तभी मिल जुल कर ही चलेगी ..
ReplyDelete[कब तक स्त्री को ये सुनवाते रहेगे की "जाओ खाना बनाओ मै कमा कर आया हूँ " " सारा दिन घर मै गैप मारती हो बाहर जा कर कमा कर लाना पडे तो समझ आयेगा "
ReplyDelete]
Itne dino se mahilayen purush ke shashan mein rahi hai to ye sab sunna padta hai. Aur barabari ka darza itni jaldi to nahi hi milegi. Thoda waqt lagega lekin nariyan chin hi lengi apna haq, apne vichar.
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक
Mujhe lagta hai itna hi kafi hai aur jo smajhe wo gyani hai jo na samjhe wo nadan!