July 22, 2008

नारी नारी में भेद

कल रचना के लेख में एक बात उभर कर सामने आयी,जो हमें बहुत कुछ सोचने को विवश कर देती है.रचना ने अपने लेख में बहुत ही अच्छी तरह से पूरक और ज़रूरत के बीच का भेद समझाया है.हम सभी को मालूम है कि परिवारों से समाज का निर्माण होता है,और परिवार में महिला और पुरुष दोनों ही साझीदार होते हैं.यहां तक सब ठीक रहता है.फ़र्क कहां आता है? जब कोई स्त्री विवाहित ना हो ,तलाकशुदा हो या विधवा हो,तो समाज का नज़रिया स्वत: ही एक नेगेटिव दृष्टिकोण से ओतप्रोत हो जाता है.यदि इस प्रकार की स्त्री परिवार के साथ रहे तो फिर भी समाज थोडा बहुत सहन कर लेता है किन्तु यदि वो अकेले रहना चाहे,अपना जीवन यापन करना चाहे तो समाज के लिये यह अक्षम्य हो जाता है.हम लाख कहें कि ज़माना बदल रहा है,किन्तु कहां बदल रहा है ज़माना?दिल्ली जैसे महानगर में मकान मालिक अकेली महिलाओं को मकान किराये पर नहीं देते,और यदि दे भी देते हैं तो हज़ारों वर्जनाओं के साथ,जैसे कोई पुरुष आपके घर नहीं आयेगा,रात १० बजे के बाद आप घर नहीं आ सकेंगी,घर की एक चाबी मकान मालिक के पास रखनी होगी आदि.हम छोटे शहरों और गावों में तो कल्पना भी नहीं कर पाते एक अकेली रहने वाली स्त्री की.मोहल्ले वाले भी ऐसी अकेली नारी के हर कदम पर नज़र रखते हैं,कब आ रही है,रात को किस के साथ कितने बजे लौटी,रात को कब तक इसके घर की बत्ती जल रही थी इत्यादि.इस सब में पुरुष नहीं महिलायें ही ज़्यादा आगे रहती हैं.पुरुष तो ज़्यादातर घर से बाहर रह कर रोज़ी रोटी की जुगाड में लगे रहते हैं,कुछेक पुरुष इसका अपवाद हो सकते हैं,किन्तु स्त्री जगत इस बात को सबसे ज्यादा तूल देता है.अब यहां पर हम सब नारियां ही प्रगतिशील नारियों की दुश्मन हो जाती हैं.इसके साथ ही एक खाई पैदा होती है समाज में,वो भी नारियों के बीच.अकेली/शादीशुदा नारीऔर नौकरीशुदा/घर पर रहने वाली नारियों के बीच एक स्वाभाविक वैमनस्यता देखी जाती है जो कि अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है.शादी शुदा, परिवार के साथ रहने वाली स्त्रियों को अकेली महिला एक सम्भावित घर तोडू महिला लगती है.इसे और क्या काम है,ना पति ,ना बच्चे?मस्त रहती है,खुद कमाती है,खुद पर ही खर्च करती है,जिम्मेदारी क्या होती है कोई हमसे पूछे?कभी यहां जा ,कभी वहां जा,कोई रोकने टोकने वाला तो है नहीं?
दूसरी ओर अकेली महिला सोचती है,इन घर पर रहने वाली औरतों को क्या काम है,बच्चे पालो,खूब टीवी देखो,दोपहर में पैर फ़ैला कर सो जाओ,शाम को पति के सामने सजधज कर आ जाओ.दिन भर इसकी उसकी चुगली करने के सिवा इन औरतों को काम ही क्या है.कोई हमसे पूछे,रोज़ाना दफ़्तर में काम,बौस की डांट,सहकर्मियों की निगाहें/मज़ाक झेलती हुई घर आती हैं तो कभी आटा खत्म कभी दूध खत्म.घर गृहस्थी अकेले चला कर दिखाये कोई?कभी सिर्फ़ चाय ब्रेड खाकर सोना पडता है,कभी बिना इस्तरी किये कपडे पहनने पड जाते है.हमें तो ये देखने की फ़ुर्सत भी नहीं होती कि पडोस में क्या हो रहा है.
मुझे तकलीफ़ इसी बात से होती है कि जब हम नारियां ही आपस में विभक्त हैं तो नारी उत्थान की बात करने का क्या फ़ायदा.हम क्यूं इर्ष्या करती हैं एक दूसरे से? यदि हम इस पूरी वस्तुस्थिति को बदल के देखें तो ये भी हो सकता है कि पडोस में यदि इस प्रकार की कोई महिला रहती है तो घर में रहने वाली स्त्री उसके साथ सहयोग करे और बदले में उस के लिये बाहर का काम नौकरी से लौटते हुए अकेली महिला कर दे.कई ऐसे तरीके हैं जिन से स्त्रियां एक दूसरे की पूरक हो सकती हैं.यहां पर पूरक शब्द खरा उतरता है.ज़रूरी नहीं कि स्त्री पुरुष ही एक दूसरे के पूरक हों,नारी भी दूसरी नारी की पूरक हो सकती है.ज़रूरत है सिर्फ़ विचारधारा में बदलाव लाने की.यही बदलाव हममें अपने आप में लाना है.स्वाधीनता या आज़ादी घर में रह कर भी पायी जा सकती है और बाहर जा कर भी.कितनी ही ऐसी महिलाओं को जानती हूं जो नौकरी करते हुए भी हर छोटे बडे निर्णय के लिये घर के पुरुषों पर निर्भर करती हैं.जब तक स्त्री समाज आपस में सामन्जस्य स्थापित नहीं करेगा,एक जुट नहीं होगा,एक दूसरे की निन्दा करना बंद नहीं करेगा तब तक स्त्री मुक्ति या स्त्री उत्थान की चर्चा करना फ़िज़ूल है.याद रखिये हम नारियां ही हैं जो अपने घर में एक पुरुष को जन्म देती हैं,कोई भी बच्चा,चाहे वो लडका हो या लडकी,मां के साथ सबसे ज़्यादा समय बिताता है.इसलिये घर की नारी का ये फ़र्ज़ है कि वो अपने हर बच्चे को सही गलत का मार्ग दिखायें,उसे स्त्री की इज़्ज़त करना सिखायें. तभी ऐसा दिन भी आयेगा जब नारी को अपना हक स्वाभाविक रूप से मिल जाएगा,उसे किसी से लडना नहीं पडेगा.तभी हम सब गर्व से कह सकेंगी,THE INDIAN WOMAN HAS ARRIVED.

9 comments:

  1. इला जी बिल्कुल सहमत हूँ आपकी बात से .जब तक औरत ही औरत के प्रति अपनी नजरिया नही बदलेगी तब तक यह बहस यूँ ही चलेगी ..जब औरते ही औरतो का दर्द नही समझती तो पुरषों से से कुछ उम्मीद रखना बेकार है ..बहुत कुछ ऐसा देखा है अपने आस पास ..अब यह कहना इस बात पर निरथर्क है कि वह औरते भी किसी की सताई हुई है तभी वह इस तरह से व्यवहार करती हैं ....जिस दिन औरते एक हो जायेगी उस वक्त कोई बहस का मुद्दा नही रहेगा यह मेरा अपना ख्याल है ..हो सकता है कई लोग इस से राजी न हो

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  2. आपकी बात सोचने योग्य है।
    घुघूती बासूती

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  3. baat agar mahila ki aapasi najriye ki ho to je sahi hai ki mahila ko pahale mahila ki soch ko, sukh ko dukh ko smajhana hoga lekin essa hai nahi, Ghar mai Bahu ko din chadate hai to pahale Saas ko hi fiker hoti hai ki pota hoga ja poti, sasur ja dever , jeth ko je chinta nahi hati hai...
    mahilaaye hi apni jmaat ko nigalne lagengi to samaaj per kaya dosh dena.Ila ji ki je baat damdaar hai ki beton ko agar maa oorat ki ejjat karna sikhaye to kaafi had tak sasaayon se nijaat mil sakti hai.
    Manvinder

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  4. इला जी की बातों से पूरी तरह सहमत होने पर भी लगता है अभी और समय लगेगा इस सोच को समाज मे आने मे....!

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  5. यह बात केवल नारियों पर ही लागू नहीं होती ...चाहे वह कोई भी इंसान हो,स्त्री या पुरुष यह प्रवत्ति होती है की सामने वाला व्यक्ति ज्यादा प्रसन्न नज़र आता है!नौकरीपेशा आदमी को बिजनेसमैन ज्यादा सुखी लगते हैं!घरेलु औरत को कामकाजी महिला ज्यादा सुखी लगती है!यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है जो सभी में पाई जाती है और ऐसा इसलिए है क्योकी सामने वाले की परेशानियों से हम वाकिफ नहीं होते!इसे स्त्री और पुरुष के नज़रिए से सोचना मेरे हिसाब से उचित नहीं है!यदि एक पुरुष कहता है की फलाना पुरुष मुझसे ज्यादा खुश है तो इसे तो कोई पुरुष पुरुष का दुश्मन है के रूप में नहीं लेता? सिर्फ नारियों पर ही ये बात क्यों?

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  6. इला अक संतुलित पोस्ट के साथ विषय को आप ने आगे बढाया हैं . इसी विषय पर एक और सदस्य की पोस्ट भी आ रही हैं , अगर किसी और के पास भी कोई और पोस्ट हो इसी विषय पर तो उसको देखने के बाद मे इस बात के विषय मे जरुर लिखुगी . मै इस पोस्ट पर अपना कमेन्ट ना दे कर नयी पोस्ट पर दूंगी क्योकि जो बात पल्लवी कह रही हैं वो भी एक आयाम हैं जिसको मै अपनी पोस्ट में लिखुगी आप भी यहाँ आए प्रश्नों के उतर देती रहें

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  7. जय बाबा आइंस्टाइन की। वे कहते हैं कि जहाँ आप खड़े होंगे वैसी ही दुनियाँ दिखेगी। जैसी दिखेगी वैसी ही देखने वालों की प्रतिक्रिया होगी। यह नियम सभी देखने वालों पर लागू होता है। वे स्त्री हों या पुरुष। यही सब पुरुषों में भी होता है। पर वे एक दूसरे को उन की स्थिति के अनुरूप देखने लगें तो शायद दृष्टिकोण में बदलाव आए। इस के लिए पहले तो सभी को सापेक्षता पढ़ाई जाए। जरा सरल और रोजमर्रा के परिप्रेक्ष्य में। दूसरे ऐसे साहित्य की रचना की जाए जो परिस्थिति सापेक्ष जीवन का मूल्यांकन प्रस्तुत करे। मैं ने काम बांट दिया है अब रचनाकार और लेखक पिल पड़ें तो बहुत सार्थक रचनाएँ एकत्र हो सकती हैं। वैसे एक रचना भी कम नहीं होती।

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  8. ईला जी आप की बातों से शत प्रतिशत सहमत हूँ , हमने भी अपनी पोस्ट पर यही कहने की कौशिश की थी लेकिन शायद इतना स्पष्ट नहीं कह पाये थे। हमारे हिसाब से भी अक्सर नारी ही नारी की दुश्मन होती है खासकर चरित्र पर लाछंन लगाने के मामले में। आप की अगली पोस्ट का इंतजार

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  9. mai age ki padhai karne ke liye dusre sahar gayi,pg ban kar rahi aur baad me naukri bhi ki.love marage kiya to saas ne kharab character hone ka ingit bhi kiya hai.ek rishtedar to ye bhi kaha ki chote saharo ki ladkiyo ka yehi kaam hai ke bahar aao aur affair karo.kya sirf itni si karan ke liye chote saharo ki ladkiya apne ghar ka nirapatta chodna chahti hai?kya ghar baithe affair nahi hota?aap sab itni acchi baate karte hai is baare me kya rai hai?

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