April 25, 2008

सुख की खोज...

यह कोई कहानी नही - मेरी हमराज़ के मन का दुःख-दर्द है। जो वह मुझसे कह कर भूलने का प्रयत्न किया करती थी। एक उदास ,बादलों भरी शाम को वह अचानक मिली और वही सब कहती रही - दुःख-दर्द की कहानी।मैं उसे देखती रही - आँसुओ में डूबा मुख! ओह, इस पागल को सुख की खोज थी और हिस्से में काँटों भरी राह पर मात्र भटकना था। पति-पत्नी का सर्वस्व होता है - उसके तन और मन का स्वामी,उसका देवता - इस बात को अच्छी तरह जानती थी शीला पर..... । प्रत्येक नए दिन को नए उत्साह से नए रंग में रंग देने के लिए वह अपनी दिनचर्या शुरू करती थी - देवता को खुश रखना है, उसकी खुशी में ही अपनी खुशी है। अपनी मन की समस्त इक्षाओं को वह कमल के चरणों में डाल देना चाहती थी ताकि विचारों का सामंजस्य हो जाए, लेकिन कुछ नही हो सका। उससे कहीं न कहीं भूल हो जाती थी और सारे किए कराये पर पानी फिर जाता था।आदर्शों पर चलने और जीने की बात करते करते वह चाहने लगती थी कमल कहीं से आकर उसके पास घंटे दो घंटे बैठे, उसकी बात पूछे, बच्चों की बातें करे। वह उसके साथ बात-बात पर हंसने लगे ताकि छाती पर सिल सा जमा भय - पति का भय उसके मन से दूर हो जाए और वह यहीं पर पुनः भूल कर जाती - वह जाने कैसे भूल जाती कि कमल कई बार दोहरा चुका है कि वह कोई ऐरा-गैरा नही कि उसके पास व्यर्थ बैठ कर व्यर्थ की बातों में समय गंवाए।फिर कुछ गहरे कहीं चुप जाता। एक तिलमिलाहट लिए वह काम-धाम में जुट जाती। चाहे अनचाहे विचारों की आंधी में कभी उसके हाथों पर गर्म तेल पड़ता कभी ऊँगली की पोर से खून बहने लगते और वो ख़ुद को कोसने लगती - तू नही चल सकती आदर्शों पर। आडम्बर में जीती है. अरे ऐसे भी लोग हुआ करते हैं जिनकी कोई अपनी इक्षा अपनी ख़ुशी नहीं होती और तुम... .
शीला दीवारों पर आँख गडाए रोती रहती...उसके नसीब में लौह सलाखें हैं वह पिंजरे में बंद है सिर्फ दाना चुगने और पानी पीने के लिए.पिंजरे से वह भाग जायेगी..दीवारों और छत की कडियों ए बातें करते हुए वह प्लान बनती रही. घुल्घुल कर जीने के बजाय मर जाना अधिक अच्छा है...एक डरपोक औरत और कर भी क्या सकती है - घर की चार दीवारी का डर , समाज का डर , दुनिया का डर - चारों और डर ही डर.नहीं चाहिए उसे खुला आकाश.बस एक ही चीज़ की कामना है ,वह है मौत. तभी उसके अबोध बच्चा माँ-माँ कह उठे और वो उन्हें घूरने लगी- क्या तुम लोगों ने जान लिया.इतना प्यार से मत देखो...अभी मुझे जीना है, तुम्हारे लिए जीना है.सारा ज़हर पीकर सब झेलते हुए तुम्हे बड़ा करूंगी- दूर खडा भविष्य मुझसे कहता है - मैं एक दिन खुशकिस्मतों में गिनी जाउंगी...

5 comments:

  1. अम्मा जी
    नारी की यह छवि बहुत देखने को मिलती है। मुझे महादेवी वर्मा जी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं -
    हमारे समाज में पुरूष मानवीय मूल्यों से गिर कर पशु बन जाता है और नारी मानवीय मूल्यों से ऊपर उठ कर देवता। दोनो ही स्थितियाँ समाज गलत हैं । अगर पुरूष पशु है तो नारी देवता क्यों बन जाती है?
    देवता होना अच्छा तो है, सम्मान भी मिलता है किन्तु वह पत्थर हो जाता है। लोग उसको वही मानते हैं। अगर संवेदन शीलता बनाकर रखनी है तो अतिवादी दृष्टिकोण को सुधारना होगा और अपने साथ हो रहे अन्याय का विरोध करना होगा। तभी वह जीवित कहला सकेगी।

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  2. काफी अर्थपूर्ण और समाज का ज्वलंत सत्य प्रस्तुत किया है,
    कितनी समर्थ है नारी,
    बच्चों के जीवन में अपनी ख़ुशी समेट लेती है.......

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  3. हिम्मत से ही आगे बढ़ा जा सकता है और यह आपकी रचना इसी बात को दोहराती है ..

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  4. aap ki kehani mae sach har shabd mae dikhtaa haen . ishwar karey har maa jo apna bhavishya apne bachchey maea daekhtee haen usko kabhie bhavishya mae afssos naa ho kii maene apne baarey mae kyon nahin socha
    ishwar sab bachcho ko apne ma pita ka khyaal usi tarah raknae kii shaktee dae jis tarah maa pita unka rakhtey haen

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  5. बिल्कुल सही कहा है। आत्महत्या किसी समस्या का हल नही है बल्कि हिम्मत से मुसीबत का सामना करना चाहिए।

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