April 18, 2008

आख़िर क्यों ?

ये बात आज की नही है बल्कि ८-९ साल पहले की है। दिल्ली मे जहाँ हम लोग रहते थे वहीं ये परिवार भी रहता था। जिसमे २ बेटे और ३ बेटियाँ है । जब शुरू-शुरू मे ये परिवार हम लोगों की कॉलोनी मे आया था तब ज्यादातर लोग ये समझते थे की उनके ३ बेटे और २ बेटियाँ है। क्यूंकि उनकी बड़ी बेटी जो उस समय क्लास सिक्स्थ मे थी हमेशा ही पैंट और शर्ट मे रहती थी।बाल भी बिल्कुल बॉय कट। अपने भाइयों के साथ कॉलोनी के लड़कों के साथ क्रिकेट खेलती और घूमती थी। ( वो अपने स्कूल की क्रिकेट टीम की कैप्टन भी थी ) वो आम लड़कियों जैसी बिल्कुल भी नही थी।
पर जैसा की सोच है धीरे-धीरे जब लोगों को पता चला की वो उनका बेटा नही बेटी है तो लोगों ने बातें बनानी शरू कर दी कि देखो लड़की होकर लड़कों के साथ खेलती और घूमती है।हर समय पैंट-शैर्ट मे क्यों रहती है। इसकी कॉलोनी की दूसरी लड़कियों से दोस्ती क्यों नही है।आख़िर क्यों ये हर समय लड़कों के साथ ही रहती है।
हालांकि वो एक छोटी बच्ची ही थी पर लोगों को चैन कहाँ मिलता है। कॉलोनी की महिलाओं ने उसकी माँ जो की तब तक अपनी बेटी के इस तरह से कपड़े पहनने को लेकर बिल्कुल परेशान नही होती थी उन्हें लोगों ने कह-कह कर अहसास दिला कर कि तुम्हारी बेटी है इसे अगर अभी से कंट्रोल नही करोगी तो ये हाथ से निकल जायेगी।लड़की है कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो क्या करोगी।भला कोई बेटियों को इतनी छूट देता है।
और फ़िर वही हुआ उस लड़की का भाइयों के साथ और दूसरे लड़कों के साथ खेलना बंद करवा दिया गया।और उसे लड़कियों जैसे कपड़े पहनने पर जोर डाला गया।और पैंट और शर्ट की जगह सलवार -कमीज ने ले ली। और उसके बाद तो बस जब वो स्कूल की ओर से क्रिकेट खेलने जाती तभी पैंट और शर्ट मे दिखती थी ।अगले २-३ साल तक यही सिलसिला चलता रहा ।ये जरुर है की उसे इन २-३ साल तक अपनी मर्जी से कपड़े पहनने की छूट नही थी और वो इस बात से हमेशा परेशान रहती की आख़िर क्यों उसे अपनी पसंद के कपड़े पहनने की आजादी नही है पर जब वो १० क्लास मे पहुँची तो उसने फ़िर से सलवार सूट के साथ-साथ पैंट-शर्ट भी पहनना शुरू कर दिया हाँ कॉलोनी मे तो नही पर उसने स्कूल और बाद मे कॉलेज मे भी क्रिकेट खेलना जारी रक्खा।

13 comments:

  1. परंपरा का बोझ लड़कियों की पीठ पर लाद देना सबसे सहज होता है। दुखद पक्ष ये है कि ज्यादातर मामलों में लड़कियों की पीठ पर ये बोझ लादने वाली लड़कियां ही होती हैं। जैसा कि आपने लिखा है कि कॉलोनी में उस बच्ची को लेकर बातें बनने लगी थी। ये जो बातें बनाने वाला वर्ग है, उसे शिक्षित और जागरुक किए जाने की जरूरत है

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  2. अब क्या कहें? इस परंपरा को नारियाँ ही बदलेंगी। पुरुष तो नहीं बदलेंगे कभी।

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  3. महिलाएँ ही मिलकर इस सोच को बदल सकती हैं। लीक से हट कर चलने वालों को अपनी जमात में शामिल करवाने का बीड़ा महिलाऔं ने ही उठाया था ऐसा आपके लेख से स्पष्ट है।

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  4. नाबालिक लड़की से बलात्कार जब होता है , पार्क मे , घर मे , कार मे , स्कूल मे तो कौन करता हैं पुरूष या स्त्री ?? हर माँ अपनी बच्ची को इन जानवरों से बचाना चाहती हैं डरती हैं उस शारीरिक यातना से जो उस बच्ची को मिलती हैं । अगर आप सब पाठक वर्ग इस पोस्ट को इस नज़र से देखे और फिर क्यों का जवाब दे तोह बहुत साथक संवाद हो गा कि क्यों लड़की के लिये इतनी अलग नियम बनाने पड़ते हैं

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  5. isey hamen khud badalna hoga..jaanti hun ki kah dena aasaan hai par kar ke dikhaana utna hi mushkil...bahot mushkilen aayengi raahon mein par inhin mushkilon se lad kar shayed ham apni manzil paasakenge...dushman poora samaj hai,even ki ham khud dushman hain apni hi qoum ke...bahot mushkil hai lekin haar jaana buzdili hai...

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  6. मुख्य रोग है आदमी की मानसिकता,
    जब तक ये मानसिकता बनी रहेगी,
    यह चलता रहेगा.....

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  7. पहनावा क्या हो ? यह हर इंसान की ख़ुद की सोच पर निर्भर है .वक्त बदल तो रहा है फ़िर भी अभी पूरी मानसिकता नही बदल पा रही है ..मेरे ख्याल से पहनावा शालीन हो और जिस में कोई भी लड़की या औरत् सहज महसूस करे वही पहने ..इस के लिए किसी कायदे कानून की जरुरत नहीं है ...जरुरत है बस अपनी सोच को बदलने की और ख़ुद को उन परम्पराओं से आज़ाद करने की जो आपकी मानसिकता को आपकी सोच के अनुसार कम और दूसरों की सोच से ज्यादा चलाती है ..

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  8. यह बात सरासर गलत है कि हर कायदे कानून औरतों पर ही लागू है,यह निर्णय तो कम से कम उन्ही पर छॊड़ दिया जाये कि क्या पहना जाये क्या नही...बात जब अपनी बेटी की आती है तो हर घर सहज हो जाता है कि यह आजकल का फ़ैशन है मगर बात जब पडौ़सी की बेटी की आती है तो तरह-तरह की बातें बननी शुरू हो जाती है,यह सबसे जरूरी है कि माता-पिता क्या चाहते है...अपनी बेटी को समाज के हवाले करना चाहते हैं या खुद अपनी जिन्दगी जीना सिखाना चाहते हैं...शुरूआत घर से ही होनी चाहिये...यह कदम तो माँ को खुद ही उठाना चाहिये...ताकि बेटी भी अपने निर्णय खुद ले सके...मगर एक बात और समझ नही आती छोटी बच्ची क्या पहने क्या न पहने क्या यह सब समाज सोचेगा? क्या इतनी छोटी सी उम्र में भी उसे शालीनता मर्यादा जैसे बड़े-बड़े शब्दों से गुजरना होगा...क्यों नही उड़ने देते उसे भी खुले आकाश में परिन्दो की मानिन्द... क्यों नही सीखने देते उसे खुद अपनी जिन्दगी जीना...छोटी सी नन्ही सी जान पर अंकुश लगा देने का क्या औचित्य है?

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  9. ye bilkul sahi baat hai,shuruwat apne hi ghar se honi chahiye,tabhi ye manasikta badlegi.

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  10. आपकी पोस्ट कुछ अधूरी सी लगी ,ऐसा लगा आपको ओर स्पष्ट तरीके से अपनी बात को रखना चाहिए था ,मेरा मानना है की पहनावा इन्सान को वही पहनना चाहिए जिसमे उसे comfortable लगे .... वैसे भी आपका सामाजिक आचरण ओर आपके काम आपकी पहचान है......किरण बेदी ओर बरखा दत्त इसके दो मजबूत उदारहण है

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  11. आप सबके कमेंट के लिए शुक्रिया।

    सत्येन्द्र जी ये जो बातें बनाने वाला वर्ग था ये सभी पढे-लिखे और समझदार लोग थे। पर जैसा की सुनीता जी ने कहा ठीक वैसा ही रवैया लोग अपनाते है।

    अनुराग जी उस छोटी सी बच्ची को तो शुरू मे ये ही नही समझ आता था की अचानक ही उसके माता-पिता ने उसके कपड़े पहनने और लड़कों के साथ खेलने पर क्यों रोक लगा दी थी।

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  12. हम बड़ी आसानी से कह सकते हैं कि उसकी मां को झुकना नहीं चाहिए था, घरवालों को अपनी मानसिकता बदलनी चाहिए, लेकिन ये आसानी से छुटकारा पाने वाली बात होगी। यहां तो पूरे समाज की मानसिकता बदलने की जरूरत है।

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  13. हम सब समाज की छोटी छोटी ईकाइयाँ हैं, अगर हर एक ईकाई अपनी मानसिकता बदल ले तो समाज की मानसिकता बदलने में देर नहीं लगेगी.

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