नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

September 30, 2011

नकारात्मक या सकारात्मक क्या ?? अरे खाना बनाना

बहुत सी महिला खाना नहीं बनाती हैं । उनको खाना बनाना एक निकृष्ट काम लगता हैं । उनको लगता हैं जब तक वो रसोई से रिवोल्ट नहीं करेगी तब तक वो मानसिक रूप से आज़ाद नहीं हैं । रसोई का काम करना यानी एंटी नारीवादी होना और रसोई का काम ना करना यानी नारीवादी होना ।

नारी सशक्तिकरण कहता हैं की अगर किसी स्त्री को सिर्फ खाना बनाना आता हैं तो भी वो सशक्त बन सकती हैं । अपने कदमो पर खडी हो सकती हैं । गावं देहात और वो सब महिला जिनको नौकरी नहीं मिल सकती हैं उनके लिये जगह ऐसी योजनाये बनी हैं जहां वो अचार पापड इत्यादि बना कर बेच सकती हैं
लिज्जत पापड़ भी ऐसी ही एक संस्था की उपज हैं और दूसरी संस्था हैं सेवा

जो लोग संस्था से नहीं जुड़ना चाहते हैं वो अपने आप भी कुछ अकेले कर सकते हैं
मै दो ऐसी महिला को जानती हूँ जो अपने घर के आस पास मे ऐसा काम करती हैं
उन मे से एक महिला घर का सादा खाना बनाती हैं उन बुजुर्गो के लिये जिनके बच्चे उनके साथ नहीं रहते या रोज काम पर जाते हैं । ये महिला दिन में लंच और रात में डिनर पैक कर कर के इन बुजुर्गो के लिये भेजती हैं । बिलकुल सादा भोजन यानी दाल रोटी चावल और सब्जी । इसके लिये वो महीने के हिसाब से पैसा लेती हैं और रोज खाना भेजती हैं । जो बुजुर्ग खुद आकर ले जाते हैं उनसे पैसा भी कम लेती हैं ।

दूसरी महिला ने अपने आस पास नौकरी करती महिला के बच्चो को अपने पास रखना और खाना खिलाने का जिम्मा लिया हैं । बच्चे स्कूल से सीधे उसके यहाँ आते हैं खाना खाते हैं और फिर अपने घर जाते हैं । वो रोज करीब २० बच्चो को खाना खिलाती हैं । इसके लिये वो अडवांस पैसा लेती हैं ।

खाना बनाना एक कला हैं और सबको आना चाहिये । स्त्री , पुरुष दोनों को आज के समय में अगर खाना बनाना नहीं आता हैं तो एक कमी लगती हैं उनको ।

विदेशो में भी वही लोग आराम से रह पाते हैं जो खाना बनाना जानते है । जी हाँ विदेशी भी खाना बनाते हैं । ये सही हैं की उनके यहाँ इतना टीम टाम नहीं होता हैं पर खाना तो वो भी बनाते हैं



किसी भी काम को / बात को नकारात्मक और सकारात्मक कहना कितना सही हैं ?? बहुदा देखा जाता हैं की जो नकारात्मक हैं आप के लिये वो किसी के लिये सकारात्मक भी हो सकता हैं ।

कम समय मे भी बहुत बढ़िया खाना बनाया जा सकता हैं
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September 27, 2011

फैसले कैसे कैसे

एक २२ साल का पुरुष और एक १५ साल की लड़की भाग गए लड़की ना बालिग थी माता पिता ने पुलिस में भगालेजाने की शिकायत दर्ज करवा दी उसके बाद पकड़ गये लडके पर भागने और बलात्कार का मुकदमा चला जज ने बरी कर दिया और तीन महीने की सजा काफी हैं जो वो भुगत चुका हैं प्यार करना गुनाह नहीं हैं दोनों कीशादी की बात हो रही हैं

अब कुछ प्रश्न हैं
  • अगर लड़की ना बालिग हैं और लड़का बालिग हैं तो ये गुनाह कैसे नहीं हैं ?
  • अगर प्यार करने को क़ानूनी मान्यता दी जा रही हैं तो फिर खाप पंचायत के समय ये क्यूँ मान्य नहीं होता ?
  • अगर भागने / भगाने को क़ानूनी मान्यता दी जा रही हैं तो हम क्या आगे जा रहे हैं या पीछे क्युकी इतिहास में ये मेंभगा लेजाने वाले और भागने वाले असली प्रेमी और बहादुर माने जाते थे

  • सोचने की बात ये भी हैं की कौन सी उम्र के बाद ये माना जाये पुरुष ने जो किया वो बलात्कार था
  • प्यार को कैसे परिभाषित किया जाए क्युकी अमूमन रेप करने वाले किसी ना किसी से ओब्सेस्सेड होते हैं औररिस्पोंस ना मिलने पर उसका रेप करते हैं , तेजाब डालते हैं

  • रेप करने वाले के साथ शादी करवाने की परम्परा भी पुरानी हैं ताकि दोनों खानदानो की इज्जत बची रहे पर क्या

किसी जज को अधिकार हैं वो फैसला दे सके की प्यार में हुआ था बलात्कार इस लिये बलात्कार नहीं हैं , प्यार में ना बालिग को गुमराह करना अपराध नहीं हैं


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September 26, 2011

NCW में ऑनलाइन आपत्ति दर्ज कराने की सुविधा हैं

क्या आप जानते हैं की NCW or National Council for Women के पास आप ऑनलाइन कम्प्लेंट दर्ज करवा सकते हैं ।
नेशनल कौंसिल के पास आप दो तरह की शिकायत दर्ज करवा सकते हैं
एक जहां आप को लगता हैं की आप का शोषण हो रहा हैं महज लिंग के आधार पर
और
दूसरा जहां आप को लगता हैं औरतो का शोषण हो रहा हैं पर किसी कानून का ना होने के कारण उस शोषण पर आवाज नहीं उठाई जा पा रही हैं ।

बहुत बार मानसिक शोषण की सीमा रेखा को कब लांघा जाता इस का अहसास शोषण करने वाले को होता ही नहीं हैं और वो हर बार साफ़ बच निकलता हैं क्युकी किसी भी कानून में उसके खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं हो पाती हैं ।

कम्प्लेंट इस लिंक पर जा कर दर्ज कराई जा सकती हैं

हो सकता हैं की आप की दर्ज कम्प्लेंट पर तुरंत कार्यवाही ना की जा सके क्युकी क़ोई कानून नहीं हैं पर उस कम्प्लेंट के आधार पर inquiry committee शोध करवा सकती हैं ।

मानसिक शोषण और वो भी महज इस लिये की हम महिला हैं हम उठाते रहे गलत हैं ।
नारीवादी शब्द को जो लोग{ स्त्री और पुरुष दोनों } गाली की तरह इस्तमाल करके दस्तावेज बनारहे हैं और किसी की सामाजिक छवि बिगाड़ रहे हैं वो एक प्रकार का मानसिक शोषण कर रहे हैं ।

किसी भी नारी का किसी भी मुद्दे पर बोलना , किसी नारी के साथ खड़े होना अगर किसी को नारीवाद लगता हैं तो ये उसकी समझ का भ्रम हैं लेकिन अगर वो किसी जगह , किसी भी पब्लिक प्लेटफोर्म पर इसका उपयोग किसी भी नारी की सामाजिक छवि को बिगडने के लिये कर रहा हैं तो वो गलत हैं ।

नारीवाद का नारी के बोलने से , किसी भी नारी के साथ खड़े होने से क़ोई लेना देना नहीं हैं । नारीवाद एक धारा हैं जिस को समाज का एक तबका गलत मानता हैं , मानता रहे ये उसकी मर्ज़ी पर ब्लॉग पर जो लोग इसको किसी महिला { जो मै भी हो सकती हूँ } की सामाजिक छवि बिगाडने के लिये इस्तमाल कर रहे हैं वो एक प्रकार का शोषण कर रहे हैं

मैने अपनी आपत्ति दर्ज करवा दी हैं । जो और महिला समझती हैं की उनकी भी छवि को बिगडने का काम कुछ लोग बहुत बढ़िया तरीके से कर रहे हैं वो इस लिंक को अवश्य देखे ।

नारी का बोलना नारीवाद नहीं हैं , और अगर नारीवाद शब्द का प्रयोग कहीं भी किसी स्त्री को गाली देने के लिया किया जाता हैं तो वो गलत हैं । इसको दंडनिये अपराध माना जाये इस दिशा में अगर मै एक कदम चल सकती हूँ तो मुझे चलना ही होगा । अगर किसी भी महिला को क़ोई कहीं भी गाली देता हैं तो उसका प्रतिकार करना और वो सही और सकारात्मक तरीके से महिला करे यानी दंड का प्रावधान बनवाने की प्रक्रिया को शुरू करवाये ।

NCW

अपने लिये सब जीते हैं पर दुनिया को दूसरो के लिये सुन्दर बने , हर आने वाली महिला के लिये ,प्रयास करते रहे



Its wrong to use the word feminist as a way of insult . All those people who do this try to spoil the public image of a woman and this is a crime and harassment. For many people Feminism is wrong and they tag woman as feminist to give a wrong impression to society . This needs to be looked into in broader perspective and such conducts should be made punishable offense. As of now not many woman are aware that NCW can make studies on the basis of complaints lodged . This is now very common on hindi blog platform to use FEMINIST as a abuse . Any word used as a abuse is a form of mental harassment




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September 24, 2011

विपदा प्रबंधन

अगर आप किसी के नॉमिनी हैं तो आप उसके उत्तराधिकारी नहीं हो जाते हैं । नॉमिनी महज ट्रस्टी होता हैं । नोमिनेशन होने के बाद भी जिन उत्तराधिकारियों का नाम नहीं हैं वो क़ानूनी प्रक्रिया का सहारा ले कर नॉमिनी को मजबूर कर सकते हैं की वो मिली हुई वस्तु को उनके साथ बांटे ।

बैंक में की गयी अफ डी हो या विरासत में मिला मकान , नोमिनेशन का मतलब कभी भी कहीं भी उत्तराधिकार नहीं होता हैं ।

जो लोग अपने ना बालिग बच्चो का नाम नोमिनेशन में डालते हैं उनको पता होना चाहिये की अनहोनी अगर हो गयी तब भी बैंक या जहां भी आप ने बच्चो को नॉमिनी बनाया हैं आप के नाबालिक बच्चे को वो सम्पत्ति / रुपया पैसा नहीं सौपेगा जब तक बच्चा बालिग़ नहीं हो जाता हैं । इस लिये कोशिश रहनी चाहिये की अपने बच्चे के लिये एक लोकल गार्डियन हमेशा रखे । कुछ ऐसे लोगो के साथ बच्चे का जुड़ाव रहे वो वक्त पडने पर उसकी मद्दत के लिये कानून का सहारा ले सके ।

एक जानकार परिवार में एक दुर्घटना हो चुकी हैं , पति की बीमारी से मृत्यु हो गयी , तकरीबन ३ महीने बाद पत्नी ने आत्महत्या कर ली और ७ वर्ष के बच्चे को अनाथ बना दिया । परिवार की आर्थिक स्थिति सही नहीं थी पर फिर भी पति का कुछ पैसा जहां वो काम करते थे वहाँ जमा था और कुछ बैंक में । पर बच्चे को नहीं मिला जो बालिग़ होने पर मिलेगा ।

उस बच्चे के परिवार में नाना , मामा , मौसी , चचा , ताऊ सब थे पर किसी ने भी उस बच्चे का क़ानूनी गार्डियन बनना मंजूर नहीं किया । इस कारण आज १० साल बीतने के बाद भी वो पैसा उस बच्चे को नहीं मिला । बच्चा अपनी बुआ के घर रहता हैं ।

ईश्वर ना करे इतना दुःख किसी पर आये पर विपदा प्रबंधन अगर पहले से हो जाए तो शायद कुछ बेहतर स्थिति हो ।

विदेशो में इस प्रकार की स्थिती आने पर सरकार का दईत्व हो जाता हैं और सरकार प्रबंध कर के कानूनन एक गार्डियन अपोइन्ट करती हैं । बच्चा बड़े होने तक उनके साथ रहता हैं और सरकारी निगरानी भी रहती हैं ।

हमारे यहाँ अभी इस प्रकार का क़ोई सिस्टम नहीं है इस लिये क्युकी अब न्यूक्लियर फॅमिली का चलन होगया हैं तो विपदा प्रबंधन का ध्यान रखना जरुरी हो जाता हैं ।

जिन विवाहित महिला ने अपना लॉकर अपनी माँ के साथ खोल रखा वो हमेशा ध्यान दे की किसी भी आपदा में अगर वो या उनकी माँ नहीं रहती हैं तो माँ के उत्तराधिकारी उस पर अपना भी अधिकार जाता सकते हैं । नोमिनेशन बहुधा लॉकर में होता ही नहीं हैं और होता भी हैं तो फिर ट्रस्टी वाली बात आ जाती हैं ।




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September 20, 2011

क्या प्रकृति कन्या के साथ हैं ??

भारत में दस साल पहले १००० लडको पर ९२७ लडकियां का आंकड़ा सेन्सस बता रहा था वही इस साल वो आकंडा १००० लडको पर ९१४ लडकिया होगया हैं

कारण लोग लिंग परीक्षण करवा कर गर्भ में ही अजीवित कन्या को मृत्यु दे रहे हैं ।
इस विभत्स्य कृत्य के बाद भी दस साल में केवल और केवल १३ कन्या ज्यादा कम हुई हैं ।
जबकि १९८० -२०१० तक में ४ मिलियन से लेकर १२ मिलियन तक गर्भ में कन्या की ह्त्या हुई हैं ऐसा मानना हैं

तब भी केवल और केवल १००० लडको पर १३ लडकियां कम हुई हैं दस सालो में यानी
प्रकृति लड़कियों के साथ हैं
लोग जितना जितना लड़कियों की गर्भ में ह्त्या कर रहे हैं प्रकृति उतना उतना लड़की पैदा हो इस और अग्रसर हैं ।

और अगर प्रकृति हमारे साथ हैं तो हमारा विनाश संभव ही नहीं हैं । प्रक्रति खुद बैलेंसिंग कर रही हैं क्या करे इंसान की संवेदनाये जब मर जाती हैं तो प्रकृति / ईश्वर खुद रास्ता बनता हैं

वो महिला जो सामाजिक दबाव में आकर कन्या की ह्त्या गर्भ में करने को मजबूर हो जाती वो सोच कर देखे प्रक्रति उनके यहाँ क्यूँ बार बार कन्या को ही भेजती हैं ।

बेटियों को गर्भ में मारने से
किसी समस्या का निदान नहीं होता हैं

अगर बेटे इस लिये चाहिये कि
बुढापे में काम आये
और वंश आगे बढाए

तो एक बहू भी चाहिये
जो किसी कि बेटी है

बस करना इतना हैं
जब किसी के बेटी को
अपनी बहू बना कर लाये
तो ना दहेज़ मांगे
और जो मिले
रीति रिवाज के नाम पर
उस को भी वही छोड़ आये

अगर बेटी इस लिये नहीं चाहिये
क्युकी होती हैं वो परायाधन
तो बस इतना करिये
उसको अपना समझिये
उसको पढाए
सशक्त इतना बनाए कि
वो आप के बुढापे में
रख सके आप का ख्याल

मारना हैं तो
इन रीति रिवाजो को मारो
जो कन्या को
माता पिता के लिये
बनाते हैं भारी

गर्भ में कन्या को मारना
नहीं समाधान हैं क़ोई
फिर क्यूँ इस पाप को
कर रहा हैं समाज



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September 19, 2011

क्या विवाह , लाइसेंस हैं अनैतिक आचरण करने और उसको छुपाने का

नारी ब्लॉग की शुरू की पोस्ट में मैने एक पोस्ट पर विमर्श शुरू किया था Link

पति पत्नी और वो यानि गलती बलिदान व्यभिचार इस पोस्ट को आप लिंक क्लिक कर के पढ़ सकते है , उस समय वहाँ १५ कमेन्ट आये थे उसी पोस्ट को साल बाद फिर पोस्ट किया

पति पत्नी और वो यानि गलती बलिदान व्यभिचार तो करीब २१ कमेन्ट आये

१५ सितम्बर को खबर पढ़ी थी की कन्नड़ फिल्म की एक्टर निकिता ठुकराल को कन्नड़ फिल्म प्रोडूसर अस्सोसिअशन ने साल के लिये बैन कर दिया हैं

कारण
कन्नड़ फिल्म के एक्टर दर्शन ने अपनी पत्नी विजयलक्ष्मी की बहुत ही हिंसक रूप से पिटाई की

अब एक पति ने अपनी पत्नी को हिंसक रूप से मारा जो डोमेस्टिक वोइलेंस में आता हैं तो एक अन्य नारी को क्यूँ बैन किया गया उसके काम से

बहुत आसन लोजिक थी की निकिता ठुकराल ने दर्शन का वैवाहिक जीवन बर्बाद किया इस लिये वो सजा की अधिकारी हैं ।
लेकिन दर्शन के लिये क़ोई सजा नहीं सोची कन्नड़ फिल्म प्रोडूसर अस्सोसिएशन ने ।

ख़ैर नारी संगठनों के हाय तौबा मचाने से निकिता के खिलाफ लगा बैन , माफीनामे के साथ वापस ले लिया गया और दर्शन को पुलिस ने १४ दिन की हिरासत में भेज दिया

विजय लक्ष्मी , जो दर्शन की पत्नी ने उन्होने कोर्ट में हलफनामा दिया की ये उनका पारिवारिक मामला हैं और इस के कारण उनके पति को सजा ना दी जाए ।

जिन विजय लक्ष्मी ने दो दिन पहले पुलिस में कम्प्लेंट की थी की दर्शन यानी उनके पति ने उनको मारा क्युकी उन्होने अपने पति और निकिता के सम्बन्ध की बात की थी और जिनकी वजह से निकिता को सारे आम बैन किया गया वो आज त्याग की मूर्ती बनी अपने पति के साथ हैं और पारिवारिक जीवन में खुश हैं वाह ये हुई ना देवी वाली बात ।

नौ महीने बाद एक सबूत भी होगा दर्शन और विजयलक्ष्मी के पास कि पति की गलती को माफ़ी मिल गयी और उनका दाम्पत्य जीवन पुनह पटरी पर हैं और पति पत्नी बारी बारी डाईपर !! बदलते हैं और दूध कि बोतल बनाते हैं

हाँ नैतिकता का सारा दारोमदार समाज ने निकिता के लिये छोड़ दिया और उसके आचरण को अनैतिक मान कर सजा का हकदार बना दिया ।


एक पति पत्नी का मामला अगर इतना पारिवारिक होता हैं तो क़ोई तीसरा उनके बीच आता ही कैसे हैं
अगर क़ोई तीसरा आ ही जाता हैं तो सारी सजा का हकदार वही क्यूँ होता हैं जबकि इस केस में तो निकिता अविवाहित थी
जब विवाहित लोग अपने जीवन में नैतिकता रख नहीं सकते तो क्यूँ वो नैतिकता कि बात ही करते हैं
विवाहित स्त्री हो या विवाहित पुरुष अगर वो किसी अविवाहित से सम्बन्ध रखता हैं तो उसमे गलती विवाहित कि हैं क्युकी वो अपने दाइत्व से विमुख हुआ हैं । ना जाने कितने अविवाहित लोग इन संबंधो का शिकार होते हैं क्युकी उनको बताया जाता हैं कि विवाहित जीवन सुखमय नहीं हैं । और अब सजा का प्रावधान भी अविवाहित के लिये ही हैं ।

समाज में अगर नैतिकता कि बात होती हैं तो उसको सही रूप दिया जाना जरुरी हैं ।
जो पत्नियां अपने पति से पिट कर भी सब कुछ ठीक हैं कहती हैं क्या क़ोई कानून ऐसा हैं कि उनको सजा दी जा सके पुलिस और न्यायलय का समय बर्बाद करने का या क़ोई सामाजिक सजा ।
जो पुरुष अपनी पत्नी से इतर सम्बन्ध रखते हैं उनके लिये क्या समाज क़ोई सजा देता हैं

नहीं क्युकी
all that ends well is well


आप कहेगे निकिता पर से बैन हटा दिया गया , मै पूछती हूँ
क्या विवाह , लाइसेंस हैं अनैतिक आचरण करने और उसको छुपाने का ??


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September 18, 2011

ये आज के हिंदुस्तान टाइम्स मे प्रकाशित हैं "SEXIST! BOORISH! MISOGYNIST! and this must change now "

SEXIST! BOORISH! MISOGYNIST! and this must change now

Paramita Ghosh

paramitaghosh@hindustantimes।com




DISGRACEFUL India is at the bottom of a survey on Asian women's presence at work; in another global survey it tops the list of stressed women. Our HT C-Fore survey says 57% men have more faith in a male boss. Signs of an emerging superpower in sync with the times? No, we are...

Arpita Das, a criminal lawyer practising at the Delhi High Court, walks into an upscale coffee joint, looking as if she has been answering womanfirst surveys all her life. Smart and well dressed, with experience of working on a team that has handled clients in Geneva and Milan, she could easily be, as a recent Nielsen survey has called the Indian woman, a “Woman of Tomorrow“ -urban, assertive and well-travelled.

The designation, however, hides a sting. Among emerging and developed countries such as Mexico and Nigeria, India tops the list of overworked and undervalued women -87% Indian women say they feel stressed most of the time, with 82% claiming they have no time to relax. Das admits to pressures: “From a court clerk to a senior lawyer, the vibe we get is that being a woman, if you are soft spoken, you are weak. I've learnt to shout.“ The urban Indian woman has had to live with sexism for so long -at home, in the workplace -that sometimes it feels she is dusting out yesterday's baggage. Because she is so much better off than her sisters in the Other India outside of metros -her situation has been left unaddressed. But the rise of the middle-class and with it the middleclass woman -an important factor in India's emergence as an economic power -can no longer be ignored.
Time to address her concerns.
Sociologist Shiv Vishwanathan advocates: “The question of gender and inequality faced by urban women is a central middle class issue. It's a social issue and it could be turned into a legislative movement.“

Indeed. Despite a sizeable number of women in the service sector in urban centres, many even calling the shots in high-powered boardrooms; chick-lits chronicling the urban woman's stories as a valid publishing genre; women's lib and women's rights as part of popular discourse; its defence and discussion by the media and other channels of popular culture in obvious and symbolic ways, the `ideal' urban Indian household is still one in which the man is at work and the woman is at home.

A 22-nation poll on gender issues conducted in 2010 by the Pew Research Center's Global Attitudes Project show 52% Indian women and 53% men feel that “enough changes“ have been made towards making India gender equal.
The findings from India are all the more astounding, and worrisome, as most of those surveyed are from metros. In 2011, the feedback remains more or less status-quoist. According to the HT-C fore survey of working men and women, conducted in eight Indian metros, 61% men believe the growing rate of divorce or breakdown of marriage among urban couples is because women have become too independent. “Does this behove an emerging economic superpower? Our mentalities must change,“ says Vishwanathan.
BLANKED OUT, MADE INVISIBLE The signs of this independence have invited hostility. And indifference in equal measure. Data on women in corporate India are not recorded. Slutwalk, a stand by many urban women in India to protest sexual insinuations based on their sartorial choices, have raised male hackles. News of sexism appear and disappear in newspapers without corrective laws. Women working late nights in call centres at the heart of the new economy are often raped. Their choice of clothes call for it, say cops.

Sex determination tests are carried out to abort female foetuses. Parents pass off increasing violence and sexual harassment of women in public spaces as its reason, says a recent study by the Centre for Social Research (CSR). MPs have been allocated R5 lakh to spread awareness on the issue, “but no one knows where the money has gone“, said Dr Manasi Mishra, a CSR team member, in an interview.

Government intervention, when it has happened, has continued the grim theatre. An analysis of Statement 20 (Budget statement according to which each ministry declares its gender-sensitive allocation) indicate that some of our ministries show “laundering of women's uniforms, and building of maternity centres -which should have been mandatory -as part of their gender-sensitivity expenses,“ informs Madhubala Nath of UN Women.

Madhu Mehra, executive director of Partners for Law in Development (PLD), a legal resource group working in the fields of social justice and women's rights, also points to “weakness in political will in introducing comprehensive laws for gender justice“.
For example, the bill on Sexual Harassment at Workplace remains pending, and infact, contains provisions that are counter productive to the object and purpose of legislation.
MIXED SIGNALS Due to lopsided policy-making from above and the absence of sustained movements from below -the Indian feminist and other allied social movements were strongest in the `60s to the late `80s -the fight against sexism in India, say experts, has been an incomplete one: it could not make any fundamental change in the structure of the family or alter mindsets.

Economic progress, therefore, has not changed the paradigm. Earning more money has made us rich, but has it made us -Indian men and women -progressive? Women, too, dump stereotypes on men, making a chap defensive about wanting to be an artist, for example; be the guy who stays at home and pays the electricity bills; and be employed in `unsuitable' vocations.
You can't dream about the `New Man' and then not want him.

“A rhetoric of sexual emancipation“ among the upwardly mobile urban Indian middle-class alongwith the “rise in consumerism and commodification,' says feminist publisher Ritu Menon, has confused the issue. “Living together does not mean a new sexual division of labour or that sexism is less or on the decline.... A real change would be when woman's labour at home is considered productive rather than reproductive, when she is in full control of her sexuality...the body is the medium through which a woman is most policed,“ she says. In our survey, too, 58% Indian men say women should dress conservatively if she wants to avoid unwanted attention, 68 % men would prefer a male boss. And yet, there seems to be hope -49 % fathers feel they would not spend more on a son's education and 57 % say their daughter is as capable of choosing her life partner. How do we explain this?
CONTROL AND COMPROMISE In these times of high inflation, economics has played a part in restructuring power relations between men and women. Choice (letting a daughter choose her partner) and control (restrict her choice of dress) has come to exist side by side.

Bollywood, a reliable populiser of Indian stereotypes, has in two recent films, Corporate and Rajneeti, shown the limits of gender equality in our society. In Corporate, Nishigandha, the female protagonist, is shown to be on par with her male colleagues in potential and achievement, and yet has to play The Game to make an executive of a rival company divulge his business plans. In Rajneeti, Indu has all the right credentials -educated, charming, daughter of a rich business house -to live a liberated life, but finds her choices shrunk when she is forced to marry the man (a potential chief minister) her father wants in order to further his business interests.

So is this the way it has to be for women -even upwardly mobile woman who are very much part of India's success story. In the name of showing the `truth' are we strengthening stereotypes?

Documentary film-maker Paromita Vohra, in her film, Where's Sandra, counters another simplistic treatment by Bollywood that imagined Christian and Anglo-Indian girls, who worked as office secretaries in Bombay, to be racy, easy -and a threat to a male-dominated workforce. The truth is the reason for this kind of cultural stereotyping has roots more ancient than we think.

Radical scholar Silvia Federici, in her book, Caliban and the Witch, points to a similar picture -an unspoken agreement between men and the church in 15th century Europe to exclude women from craft workshops and the market by terming women who resisted it, witches or prostitutes, sexually aggressive shrews, disobedient wives. The motive -ban women from economic competition.

According to the Gender Sensitivity Benchmark for Asia 2011 report, India is the worst among the six top Asian economies when it comes to representation of women in the workforce at junior and middle-level positions.
The lowest percentage of women are employed in India (24.43%), with Japan (33.62%) the second lowest, according to the study.

The WILL KPMG Report on `In Pursuit of Balanced Leadership in Corporate India' (2010) also indicates that the vast majority of women in corporate India have remained in the mid-level bracket for more than 15-20 years, says Poonam Barua, Founder Convener, Forum for Women in Leadership. “The pyramid is clear for women in corporate India -with about 35% at entry level and less than 1-3% at top-management level. It is unacceptable to believe that this only because women are not `talented' or do not have merit. This is a clear case of an unequal playing field,“ she says.
ROLE MODELS -NONE However, what needs to be clear is that men by virtue of being men are not sexist and women by virtue of being women, are not anti-patriarchy.
According to the Pews survey, 84 % Indian women feel that when jobs are scarce it is men who should have more right to a job. Surprised?

As sociologist Dipankar Gupta points out, women's conservatism is hardened by the unequal environment she has been exposed to right from birth.
“Caught in the kanyadaan complex of marriage -the bride-giver is inferior to the bride-taker -Indian women have learnt to prefer boys because she would then become a sociological male.
Also, 93% Indian women work in the informal sector. With so many women outside it tells those inside they had better behave.“

Women in power haven't helped either। Political analyst and editor-publisher, Sampark Publications, Sunandan Roy Chowdhury calls Indira Gandhi and Mamata Banerjee “aberrations, they have had no influence on the women's liberation movement in the country. Indira was Nehru's daughter...and not even 10% of Trinamool Congress activists are women“. Finally, the fight for a non-sexist society has to be fought by both men and women. We all have to brush our own teeth.

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September 17, 2011

विवाहित स्त्री और उनकी माँ के लिये एक आवश्यक सूचना

सभी विवाहित स्त्रियों से और उन माँ से जो अपनी बेटी का विवाह कर चुकी हैं आग्रह हैं की इस पोस्ट को अवश्य पढ़े । आप की छोटी छोटी गलतियां आप को बड़ा नुक्सान दे जाती हैं ।

दिवंगत पिता के लॉकर में अमानत रखे स्त्री-धन को प्राप्त करने के लिए क्या किया जाए?



जब आप ने विवाह कर लिया हैं तो अपनी ज़िम्मेदारी उठाना भी सीखे ।






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September 15, 2011

झूठन खाना पत्नी की नियति हैं आज भी

२००५ में फ्री लांस काम के सिलसिले में बीकानेर जाना हुआ था । एक एक्सपोर्टर को डिजाईन चाहिये थे और वो चाहते थे की उनके यहाँ जा कर उनके कालीन की क्वालिटी देख कर , उनकी ज़रूरत समझ कर वापस दिल्ली आकर कम्पुटर पर डिजाईन बना कर दे दूँ । अब मेरा तो यही काम हैं सो बीकानेर उनके बुक कराये होटल में पहुच गयी ।
वहाँ से उनके ऑफिस पहुच कर काम को समझा और उनके बारे में जाना । पता चला उनके यहाँ तीन पीढियां हैं और इस समय तो जो मालिक हैं मुझे उनके बेटे से संपर्क रखना होगा । मालिक के एक भाई और भी साथ में व्यवसाय करते हैं । बेटा भी विवाहित हैं और उसके एक ४ साल की बेटी भी हैं ।

दोपहर के खाने का समय हुआ तो वो कहने लगे की आप घर साथ में चले , हम लोग घर जा कर ही खाना खाते हैं । घर पहुची तो उनका भव्य घर और उसकी सजावट देखी । फिर उन्होने अपनी पत्नी जो शायद मेरी हम उम्र होगी यानी ४५-४८ के बीच , भाई की पत्नी जो ४० - ४५ के बीच और अपनी बहू जो २० -२२ के आस पास रही होगी से मिलवाया ।

बहू को छोड़ कर दो महिला काफी भारी शरीर की थी और साडी पहने थी । उनके शरीर पर जेवर भी बहुत थे । बहू जेवर खूब पहने थी पर उनके मुकाबले दुबली थी ।

रसोई में एक रसोइया खाना बना रहा था और मेज पर ३ थालियाँ घर के तीनो पुरुषो की लगी थी । उसके अलावा एक थाली मेरे लिये भी थी ।

तीनो गृहणियों ने अपने अपने पति की थाली परस दी और बगल में खडी होगयी । पति लोग आये तो बारी बारी वो रसोई से जा कर गरम रोटी ला ला कर खिलाने लगी ।
मै खाना खाती रही और हर प्रक्रिया को देखती रही ।
पति खाना खा कर उठ गए तो पत्नियों वहाँ खड़ी रही जब तक वो कुल्ला करते रहे ।
मै शिष्टता वश नहीं उठी की अभी घर की महिला ने खाना नहीं खाया हैं सो उनके साथ बैठ सकती हूँ ।
कुछ पल के बाद पत्नियां अपने अपने पति की छोड़ी हुई थाली के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गयी और रसोइया उनके लिये रोटी ले आया । उसी झूठी थाली कटोरी और बची हुई सब्जी में उन्होने और परोस लिया और खाना शुरू कर दिया ।
मेरे लिये अब बैठने मुश्किल था । अशिष्ट होकर मै उठ कर सोफे पर जा बैठी और चंद मिनट में घर के पुरुषो के साथ ऑफिस चली गयी बाकी काम के लिये ।

शाम के समय उन्होने अपनी बहू को भेज दिया की वो मुझे बीकानेर घुमा दे । पता चला वो खुद भी डिजाइनर हैं । मैने कहा आप तो उम्र में मुझ से कम हैं , यानी आप के पास नये आईडिया बेहतर होगे फिर आप क्यूँ नहीं काम करती । कहने लगी हमारे यहाँ लड़कियों का कम करना सही नहीं मानते हैं ।

रात को वही होटल में मैने खाना खाया जबकि वो लोग बहुत चाहते थे घर पर खाऊ । मेरे लिये दुबारा वो सब देखना ना मुमकिन था ।

इस सदी में भी , आज भी बहुत से घरो में पति की झूठन के साथ ही खाना खाना पत्नी धर्म समझा जाता हैं । इस से प्यार बढ़ता हैं ।

बढ़िया कपड़ो और गहनों से लद्दी सेठानियाँ अपने लिये एक अलग प्लेट नहीं मंगवा सकती । घर में हर सुविधा उनके एशो आराम के लिये उपलब्ध हैं पर खाना झूठन ही होगा क्युकी यही परम्परा हैं


लोग कहते हैं बराबरी मिलती है स्त्री और पुरुष को , क्या वाकई


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September 12, 2011

माँ , घर , बच्चे

क्या माँ बनना औरत की जिंदगी की सम्पूर्णता हैं ?
या शादी करना और फिर माँ बनना औरत की जिंदगी की सम्पूर्णता हैं ?

अगर माँ बनना सम्पूर्णता हैं तो अविवाहित माँ अभिशाप क्यूँ होता हैं ?
अगर शादी करके माँ बनना सम्पूर्णता हैं तो शादी की अहिमियत हैं या माँ बनने की

क्या बच्चे को जनम देने मात्र से ही औरत माँ बन जाती हैं ?
क्या बिना बच्चे को जनम दिये औरत माँ नहीं बन सकती हैं ?

क्या आप को पता हैं एक अविवाहित स्त्री को बच्चा गोद लेने का क़ानूनी अधिकार नहीं था , १९९४ के बाद ये अधिकार दिया गया हैं और वो भी विश्व सुन्दरी सुष्मिता सेन के प्रयासों से । उन्होने इसके लिये एक लम्बी लड़ाई लड़ी थी और कानून को बदलवाया था । आज वो दो बेटियों की माँ हैं और अविवाहित हैं ।

लोग हमेशा नारी के माँ बनने को महिमा मंडित करते हैं और लेकिन अविवाहित माँ को समाज स्वीकृति नहीं देता । विवाह की प्रधानता इस लिये हैं क्युकी उससे पुरुष की प्रधानता हैं ।

घर बनाने का अधिकार नारी का नहीं होता

घर बनाने का अधिकार
नारी का नहीं होता
घर तो केवल पुरुष बनाते हैं
नारी को वहाँ वही लाकर बसाते हैं
जो नारी अपना घर खुद बसाती हैं
उसके चरित्र पर ना जाने कितने
लाछन लगाए जाते हैं

बसना हैं अगर किसी नारी को अकेले
तो बसने नहीं हम देगे
अगर बसायेगे तो हम बसायेगे
चूड़ी, बिंदी , सिंदूर और बिछिये से सजायेगे
जिस दिन हम जायेगे
उस दिन नारी से ये सब भी उतरवा ले जायेगे
हमने दिया हमने लिये इसमे बुरा क्या किया


कोई भी सक्षम किसी का सामान क्यूँ लेगा
और ऐसा समान जिस पर अपना अधिकार ही ना हो
जिस दिन चूड़ी , बिंदी , सिंदूर और बिछिये
पति का पर्याय नहीं रहेगे
उस दिन ख़तम हो जाएगा
सुहागिन से विधवा का सफ़र
लेकिन ऐसा कभी नहीं होगा
क्यूंकि
घर बनाने का अधिकार
नारी का नहीं होता


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अपडेट
इस पोस्ट के अंशो से यहाँ पोस्ट बनाई गयी हैं और उस पर विमर्श भी हुआ हैं

क्या औरत की जिंदगी में विवाह का होना ज़रूरी है?

September 11, 2011

शादी v/s नौकरी - ये प्रश्न ही बेमानी हैं

काम का विभाजन केवल और केवल लिंग आधारित नहीं हो सकता हैं
स्त्री बच्चे को जनम देती हैं लेकिन ये जरुरी नहीं हैं की हर स्त्री देना चाहे
स्त्री का विवाह उसकी नियति नहीं हैं
जैसे पुरुष को अधिकार हैं अपने लिये कैरियर चुनने का स्त्री को भी संविधान और कानून देता हैं
सवाल हैं क्या स्त्री को ये समाज अधिकार देता हैं की वो कानून और संविधान की दी हुई बराबरी के तहत अपने लिये चुनाव कर सके की उसको काम करना हैं या नहीं , शादी करनी हैं या नहीं , बच्चे पैदा करने है या नहीं , घर में रहना हैं या बाहर जाना हैं
मै ऐसी बहुत से स्त्रियों को जानती हूँ जो अपने भाई बहनों को पढ़ाने के लिए नर्स , टाइपिस्ट और बहुत सी ऐसी नौकरियां करती हैं जहां यौन शोषण की संभावनाए असीमित हैं क्युकी जिन पुरुषो के नीचे वो काम करती हैं वो जानते हैं की ये मजबूर हैं नौकरी नहीं छोड़ सकती . इन स्त्रियों को क़ोई क्यूँ नहीं नौकरी करने से रोकता , क्यूँ इनकी नौकरी करने को एक सैक्रिफैस का नाम दिया जाता हैं . गलती उनके माँ बाप की हैं जो जब शादी के लायक ही नहीं थे उनकी शादी की गयी और फिर उन्होने बच्चो की लाइन लगा दी और उसका भुगतान उनकी बेटियाँ उठाती हैं
ये लडकियां नौकरी नहीं करना चाहती , विवाह करना चाहती हैं , लोग बजाये उनका शोषण करने के उनसे विवाह ही क्यूँ नहीं कर लेते .

क्या जरुरी हैं की जो लड़की नौकरी करना चाहती हैं उसको विवाह के लिये बाधित किया जाये . यहीं समस्या की जड़ हैं , हम लकीर पीटना चाहते हैं की शादी करना जरुरी हैं जबकि सोचना ये चाहिये की शादी उनकी हो जो करना चाहे नाकि इस लिये हो की लड़कियों को घर में रह कर गृहस्ती संभालनी चाहिये

जिन लड़कियों को शादी की जरुरत हैं , जिनको ऐसे परिवार और पति चाहिये जो उन के मायके के सम्बन्धियों को पढ़ा लिखा सके ऐसी लड़कियों को पति और शादी क्यूँ नसीब नहीं होती इस पर विचार दे . क्यूँ लोग केवल उन लड़कियों से शादी करना चाहते हैं जो पढ़ी लिखी हैं , दहेज़ भी ला सकती हैं , वक्त जरुरत नौकरी भी कर सकती हैं और बच्चे भी संभाल सकती हैं

हजारो गरीब मजदूरों की लडकिया हैं जिनकी शादी नहीं होती क्यूँ , क्यूँ नहीं वो पुरुष जिन्हे महज एक पत्नी चाहिये आगे आकर इनका हाथ पकड़ते हैं

जो करना नहीं चाहता उसकी जबरदस्ती करना और जो चाहता हैं नहीं करना

शादी का फैसला अपना होना चाहिये , उनका जिनकी शादी हो रही हैं । क्या वो इस जिम्मेदारी के लिये सक्षम हैं ।

केवल परिवार बढाने के लिये जो शादी होती हैं उस से जनसँख्या ही बढ़ती हैं


विवाह क्यूँ जरुरी हैं और इसकी इतनी महिमा ही क्यूँ हैं की हम नौकरी को विवाह से जोड़ कर देखते हैं ?
१९६० से पहले जिन स्त्रियों ने नौकरी की उनकी नौकरी और उनका परिवार दोनों उनकी ही ज़िम्मेदारी थी . वो सब कभी फक्र से नहीं कह सकी की उन्होने नौकरी की . इस बात को छुपा कर ही रखा जाता था और वो नारीवादी कहलाती थी
१९६०-१९७० के बीच में जिन स्त्रियों ने नौकरी की उनमे स्कूल या कॉलेज की टीचर रही जो आधे दिन में घर वापस आ जाती थी और परिवार संभालती थी
१९७०-१९८० में क्लर्क बैंक , स्टेनो इत्यादि ने नौकरी की जिन सब को प्रगतिशील और चरित्र हीन कहा जाता था इनका विवाह होता ही नहीं था ये अपने परिवार के लिये कमाती थी
१९८० १९९०
इस दशक में बदलाव आना शुरू हुआ और नौकरी नहीं स्त्रियों ने कैरियर पर ध्यान दिया कैरियर यानी कम से कम १२ घंटे की नौकरी ऐसे में शादी करने वाले इस लिये कम मिले क्युकी कैरियर बनाने वाली लड़कियों की सैलिरी और योग्यता ज्यादा होती थी . इस दौरान जिनके विवाह हुए भी वो ज्यादा नहीं चले पर उत्तर दाइत्व लड़की का ही माना गया .
१९९० से अभी तक
कैरियर को प्राथमिकता देने वाली लड़कियों की संख्या बढ़ रही हैं और वो शादी भी कर रही हैं क्युकी उनकी तनखा से घर खर्च में सुविधा हैं . पति काम भी करते हैं घर का क्युकी बिना उसके पत्नी की नौकरी संभव नहीं हैं हाँ बच्चे जल्दी नहीं हो रहे हैं और कहीं कहीं नहीं भी हो रहे हैं . लेकिन इस समय लडकियां कम उम्र में ही नौकरी भी कर रही हैं शादी भी और उन्होने परिवार के विषय में ज्यादा सोचना बंद कर दिया हैं

ये सच हैं की आज भी पति की नौकरी और तरक्की पत्नी के लिये उपलब्धि हैं पर पत्नी की नौकरी और तरक्की उसकी अपनी उपलब्धि हैं
समाज में स्थिति तब बदलेगी जब लड़की के माता पिता लड़की की आय पर अपना अधिकार समझेगे और लड़की और लडके में विभेद नहीं करेगे .




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September 09, 2011

आज की बात करिये


बार बार जो नारी को अबला कहा जाता हैं क्या सही हैं ?? या ये कह कर महज उसको डराया जाता हैं
नारी का आज के समय में भी ये मानना की वो अबला हैं क्या सही हैं ?? या ये उसका लकीर पीटना मात्र हैं
विवाह नारी को के उत्थान में बाधक है आज भी क्या ये सही हैं ?? या ये एक मिथ्या भ्रम मात्र हैं






आज कि नारी का विद्रोह पुरूष से नहीं , समाज कि कुरीतियों से हैं जो नारी - पुरूष को एक अलग लाइन मे खडा करती हैं ।

६० साल पहले कि नारी विद्रोह कर रही थी शायद पुरूष से और इसीलिये वह बार बार कहती थी " हमें आजादी दो " लेकिन आज कि नारी अपने को आजाद मानती हैं और उसका विरोध हैं उस नीति से जो उसे पुरूष के बराबर नहीं समझती ।

आज की नारी ने समाज के बनाये नियम की पुरुष उसका भगवान् / दाता हैं से विद्रोह करना शुरू किया हैं

अगर भारतीय समाज को "परिवार " को बचाना हैं तो उसे ये मानना होगा कि नारी पुरूष बराबर हैं नहीं तो अब परिवार और जल्दी टूटेगे क्योकि आज कि पीढी कि स्त्री आर्थिक रूप से सक्षम हैं और उसे अकेले रहने और अकेले तरक्की करने से परहेज नहीं हैं ।


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September 08, 2011

क्या autistic पुरुष या स्त्री का विवाह होना चाहिये ?? रश्मि को बताये

कल की पोस्ट विकलांग से विवाह - क्या सब ठीक हो जाता हैं
नारी ब्लॉग की रेगुलर पाठक रश्मि ने पूछा हैं की उनका भाई autistic हैं और इस समय १५ वर्ष का हैं । एक स्पेशल स्कूल में जाता हैं । जिन्हे इस बीमारी की जानकारी नहीं हैं वो यहाँ पढ़ सकते हैं
रश्मि जानना चाहती हैं की क्या उनके भाई का विवाह , उसी की तरह की लड़की से करना उचित होगा या कुछ कम मानसिक स्तर की लड़की से करना सही रहेगा ।

मैने अपनी राय रश्मि को ईमेल करदी हैं पर उसको यहाँ नहीं दे रही हूँ क्युकी मै भी उत्सुक हूँ की और पाठक क्या सोचते हैं ।

इस प्रश्न पर राय देते समय हम दायरा और बढ़ा ले की क्या autistic पुरुष या स्त्री का विवाह होना चाहिये अगर हाँ तो किस प्रकार का जीवन साथी उनके लिये होने चाहिये और इस विवाह के दूरगामी परिणाम क्या होगे


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September 07, 2011

विकलांग से विवाह - क्या सब ठीक हो जाता हैं

भारतीये समाज में आज भी विवाह दो परिवारों का होता हैं और वर - वधु का चुनाव बहुधा उनके माँ - पिता की मर्ज़ी से ही होता हैं । आज भी ऐसे बहुत से परिवार देखे जा सकते हैं जहां अपने बच्चो की शादी करना यानी अपनी जिम्मेदारी पूरी करना होता हैं ।
हमारे देश में लडकियों की संख्या दिन पर दिन लडको के अनुपात में घट रही हैं पर अगर किसी विकलांग { सादर सहित क्युकी विकलांग होने में उस व्यक्ति का क़ोई दोष नहीं होता हैं } लडके की शादी करनी हो तो लड़की बड़ी आसानी से मिल जाती है । वहीं किसी विकलांग लड़की का विवाह करना हो तो लड़का नहीं मिलता हैं उतनी सहजता से ।

देखा गया हैं की विकलांग / मानसिक रोगी या किसी ला इलाज बीमारी से ग्रसित लडके के माता पिता उसका विवाह महज इस लिये करना चाहते हैं ताकि क़ोई उसकी देखभाल करने वाला आजाये । इस में वो लडके भी हैं तो दाम्पत्य सुख अपनी पत्नी को देने में बहुत बार अक्षम होते हैं ।
इसके अलावा शराबी , जुआरी और बिगड़ी आदतों के लडके
एच आईवी पोसिटिव लडके
लड़की से कम पढ़े लिखे लडके
के लिये भी शादी करने के लिये लडकिया बड़ी आसानी से मिल जाती हैं और जरुरी नहीं हैं वो आर्थिक रूप से कम घरो से हो या सुंदर ना हो ।

ऐसा अकसर सुना जाता हैं की शादी हो जाएगी तो सब ठीक हो जायेगा ।

लड़कियों के प्रति ये रविया क्यूँ हैं समाज का और उनके माता पिता का भी ?
क्या लडकियां क़ोई ऐसा बोझ हैं जिन्हे उतारना जरुरी है

इसके अलावा एक प्रश्न जो हमेशा ऐसे विवाह को देख कर मन में आता हैं की क्या ऐसे व्यक्तियों का विवाह करना सही हैं जो खुद शारीरिक रूप से अक्षम है और वो भी किसी ऐसे व्यक्ति से जो शारीरिक रूप से पूरी तरह सक्षम हैं { लोग प्रेम विवाह करते हैं ऐसे व्यक्तियों से पर वो मुद्दा यहाँ नहीं उठा रही हूँ } ।

क्या एक अपूर्ण व्यक्ति को अधिकार हैं किसी पूर्ण व्यक्ति से विवाह करने का ।

मेरी नज़र में किसी भी तरह से अपंग व्यक्ति को विवाह नहीं करना चाहिये । मुझे नहीं लगता क़ोई भी नोर्मल व्यक्ति एक अब्नोर्मल व्यक्ति के साथ खुश रह सकता हैं । मुझ नहीं लगता की पैसे से सब कुछ पूरा हो जाता हैं ।

जो लोग ये कहते हैं की सेवा भाव से किया हैं विवाह , या जो लोग ये कहते हैं हमने अपनी बेटी की सहमति से किया हैं उसका विवाह वो सब कहीं ना कहीं झूठ बोल रहे हैं

ऐसा मुझे लगता आप शायद ही सहमत हो , नहीं हैं ना या हैं ??

मुझे नहीं लगता इस प्रकार के विवाह से कहीं भी कुछ भी ठीक होता हैं किसी के लिये भी ।
जो बात मुझे हमेशा खटकती हैं की विवाह होना हर समस्या का निदान कैसे हो जाता हैं { अगली पोस्ट का विषय }

इस पोस्ट पर इस बात पर विमर्श नहीं हैं की विकलांग लड़कियों का क्यूँ और कैसे हो जाता हैं क्युकी वो केवल दहेज़ के कारण होता हैं ।


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September 04, 2011

कम्फर्ट ज़ोन -अगर सुविधा से प्यार हैं तो शिकायत ना करके जिन्दगी को वही बेहतर बनाए


कम्फर्ट ज़ोन यानी वो जगह
जहां आप की सुविधा की हर चीज़ हो
उन चीजों को पाने के लिये आप को ज्यादा प्रयत्न भी ना करना पड़े
उन चीजों के ना होने से आप की जिंदगी में परेशानी हो
यानी जिनकी आदत आप को पड़ गयी और जिनका न होना आप को डराए

कम्फोर्ट ज़ोन में जाने के बाद उस से निकलना बहुत मुश्किल होता हैं और इस लिये उस ज़ोन में रहने के लिये आप हर प्रकार का कोम्प्रोमिज़ , सही या गलत कर लेते हैं ।

मेरा मानना हैं विवाहित स्त्रियों के लिये विवाह एक कम्फोर्ट ज़ोन की तरह होता हैं और इस में रहने के लिये वो हर सही या गलत चीज़ को मान लेती हैं और इस वजह से वो अपने ना चाहने के बाद भी बहुत सी ऐसी चीजों को करती हैं जो समाज ने उनके लिये "निर्धारित " कर दिये हैं ।

किसी विवाहित स्त्री का पति विवाह से इतर सम्बन्ध रखता हैं , स्त्री नहीं रहना चाहती पर समाज मजबूर करता हैं कहीं बच्चो का वास्ता , कहीं सामाजिक सुरक्षा का वास्ता , कहीं घर की इज्जत का वास्ता । और सबसे जरुरी आर्थिक सुरक्षा ।

मै एक ऐसी महिला को जानती हूँ जिनके पति के सम्बन्ध हैं किसी और महिला से ।
मैने उनसे पूछा आप को बुरा नहीं लगता इनके साथ एक ही बिस्तर पर सोने से ।
बोली मुझे उलटी आती हैं ।
मैने कहा आप अलग होने की क्यूँ नहीं सोचती ? क्यूँ रहती हैं
कहने लगी ये जो घर और सुख सुविधा हैं मुझे अब कौन देगा ?
मैने कहा अब तो कोर्ट से आप को रहने और खाने का भत्ता मिलेगा , आप पढ़ी लिखी हैं कुछ कमा भी सकती हैं , अभी आप महज ४५ वर्ष की ही तो हैं
कहने लगी वो सब ठीक हैं इस समय मेरा तो status हैं वो अपर मिडल क्लास का हैं जो उत्तर कर लोअर मिडल क्लास का हो जाएगा
इतनी तकलीफ उठाने से उलटी करना ज्यादा आसन हैं

एक और महिला हैं जो ऍम बे ऐ होने के बाद भी नौकरी नहीं कर पायी क्युकी बहुत पैसे वाले घर में प्रेम विवाह हुआ । आज बहुत ना खुश हैं कहती हैं सोने के पिंजरे में कैद हूँ ।
मैने कहा पहले नहीं पता था , क्या शादी से पहले पति से इस विषय में बात नहीं हुई थी ।
बोली हुई थी , उन्होने तब ही मना कर दिया था पर सोचा था बदल लूंगी उनको ।

मैने कहा अगर आप ने गलती की हैं शादी कर के और आप नौकरी करना चाहती हैं तो फिर इस शादी से निकालिये और अपनी जिंदगी जीना शुरू करिये अपने को पिंजरे से आज़ाद करिये

जवाब मिला अपनी नौकरी में इतनी सुविधा कहा मिलेगी


अगर आप किसी सुविधा जनक जगह पर हैं और उन सुविधा को नहीं छोड़ सकते हैं तो क्या बेहतर ना होगा की आप शिकायत करना छोड़ दे

आप कहती है आप को कुछ पूरा नहीं मिला , मेरा प्रश्न है पूरे की परिभाषा क्या हैं ?
नहीं मिला ? क्या नहीं मिला ? इश्वर ने आप को माता पिता दिये , माता पिता ने आप को सक्षम बनाया , विवाह किया , सामाजिक रूप से आप सुरक्षित हैं और आर्थिक रूप से आप में से बहुत सी स्वतंत्र भी है । और" मिलने" की परिभाषा मे क्या आता है ?? सब कुछ इतने सुविधा जनक तरीके से मिला हैं आप को फिर भी आप को समाज को एक सुविधा जनक कथा नहीं दे सकी ?? क्यों ??और " मिलने " मे जो भी आता है उसे आप को "मिलना " क्यों चाहीये ? क्या उसे अर्जित नहीं करना चाहिये था आप को ?
विवाहित घराने की अन्य सद्स्याओ मै जानना चाहती हूँ की वो इस घुटन से निकालने के लिये क्या करती है ?

औरत इंसान ही हैं बशर्ते की वो ये भूल जाये की वो औरत हैं ?
भूल जाये की धूप मे उसकी चमडी काली हो जायेगी ।
याद रखे की पिता केवल उसका जनक हैं उसको दान करने का अधिकारी नहीं ,
पति उसका जीवन साथी हैं संरक्षक नहीं ,
पुत्र उसकी संतान है बुदापे की आस नहीं ।

जब तक आप के घराने की सदस्यों को ये याद रहेगा की वह औरत के आगे कुछ नहीं हैं उनके पास ऐसी एक नहीं लाखो कहानिया होगी जहां उन्हे महसूस होगा की वो बेगार की मजदूर हैं । आजाद देश मे अगर आप ख़ुद बंधुआ मजदूर की तरह रहेगे और उम्मीद करेगे की आप अपनी " सुविधा से " "कलम" से "शब्दों " के ताने बाने बुनते रहें और कोई आप को इस "बेगारी " से "स्वंत्रता " दे जाये तों आप के घराने के सदस्य बहुत ज्यादा की उम्मीद कर रहे हैं ।

"सशक्त " वह हैं जो सांचे को तोड़ कर जिन्दगी को जीती हैं । "सशक्त " वह कभी नहीं हो सकती जो एक सांचे मे बंधी रह कर घुटती है और अपनी घुटन से समाज के पर्यावरण को दूषित करती है ।

अगर सुविधा से प्यार हैं तो शिकायत ना करके जिन्दगी को वही बेहतर बनाए

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September 02, 2011

शादी - एक संस्था या उससे आगे भी कुछ


शादी ना तो obsolete institution हैं और ना ही गैर जरुरी । शादी आप क्यूँ करते हैं सवाल और जवाब उस पर निर्भर करता हैं । जैसे मेरे पास शादी ना करने के कारण हैं आप के पास करने के होगे उन कारणों के ऊपर बात किये बिना बहस करना केवल बहस करने के लिये बहस करना होता हैं .

शादी से किसी भी नारी का शोषण नहीं होता क्युकी शोषण तब होता हैं जब कोई चीज़ आप कि मर्जी के विरुद्ध हो । हाँ शादी नारी के लिये "नियति " नहीं हैं इसके आगे भी जहान थे और हैं ।बस महिला पति को सामाजिक सुरक्षा कवच ना समझे !!

शादी नारी को दोयम का दर्जा नहीं देती बल्कि दोयम का दर्जा ये समाज देता हैं जहाँ स्त्री को सहचरी न मान कर सम्पति माना जाता हैं और ये बात लिव इन रिलेशन शिप मे भी उतनी ही मान्य हैं .

शादी मे होता खर्चा जिसमे दहेज़ / स्त्रीधन दोनों हैं स्त्री को दोयम बनाता हैं । इस को कुछ लोग संस्कृति के नाम पर बढ़ावा देते हैं और इसके विपरीत जहां पुरुष को शादी पर स्त्री के लिये पैसा देना पड़ता हैं या स्त्री के घर रहना पड़ता हैं { कुछ पहाड़ी इलाको मे ऐसा हैं } वहां पुरुष कि स्थिति दोयम होती हैं । यानी दोयम शादी से नहीं "पैसे " से होता हैं । और यही करण हैं जहां पत्नी दहेज़ लाती हैं वो अपने सास ससुर और पति कि मन से कभी इज्ज़त नहीं करती हैं क्युकी वो कर ही नहीं सकती हैं ।

शादी को क़ानूनी मान्यता हैं यानी जो पति का वो पत्नी का यही सबसे बड़ी वजह होती हैं विदेशो मे शादी ना करने कि क्युकी वहाँ "alimony" और "compensation" बहुत ज्यादा होता हैं अगर तलाक हो सो लोग बिना शादी के साथ रहने मे विश्वास करते हैं ताकि "उनकी कमाई " पर दूसरे का अधिकार ना हो । लोग मैने इस लिये कहा क्युकी वहाँ के कानून मे स्त्री और पुरुष दोनों को alimony देनी पड़ती हैं यानी अगर पत्नी के पास पैसा ज्यादा हैं और पति के पास कम तो पत्नी को alimony देनी होगी ।

भारत मे क्युकी वोमन एम्पोवेर्मेंट बहुत देर से आया हैं ये बात यहाँ अभी नहीं हैं इसलिये यहाँ स्त्री का शोषण होता हैं और बहुत जगह तलाक ना लेकर पति के रहते पति अन्य के साथ लिव इन रिलेशन शिप मे रहता हैं । ये कानून का दुरूपयोग हैं और इसके लिये पत्नी भी उतनी ही दोषी हैं जितना पति क्युकी वो सामाजिक सुरक्षा के लिये अपने पति के अनैतिक { सामाजिक दृष्टिकोण से } काम मे सहभागी हैं ।
जब तक पैसा दो लोग को शादी मे बांधने और छोडने का कारण होगा शादी कि जरुरत पर सवाल उठते रहेगे ।

शादी से बच्चो को पिता का नाम मिलता हैं , अब जितने नये कानून हैं उनमे माता का नाम ही काफी हैं {लेकिन लोग कानून को नहीं समाज और संस्कृति को मानते हैं जहां बच्चो को माता पिता जाति वर्ग उंच नीच मे बांटा जाता हैं } इस लिये ये तर्क अब गैर जरुरी हैं ।

शादी ना करने के / ना होने के कारणों पर निरंतर बहस होती हैं क्युकी शादी को व्यवस्था का हिस्सा माना जाता हैं और जो लोग विवाह नहीं करते उनको व्यवस्था को बिगाडने वाला माना जाता हैं जबकि बहस का मुद्दा होना चाहिये कि समाज मे जो लोग शादी करते हैं उन्होने क्यूँ शादी कि और जब तक इसके ऊपर सचाई से आलेख नहीं आयेगे तब तक हर बहस बेमानी होगी ।


शादी अपने आप मे एक बहुत अच्छी व्यवस्था हैं अगर उसमे पैसे का लेनदेन ना हो , अगर उसमे स्त्री पुरुष कि हर बात मे सहभागीदारी हो और सबसे बड़ी बात शादी लोग खुद करे नाकि उनके अभिभावक ताकि जो फैसला वो खुद ले उसके लिये वो खुद जिम्मेदार हो । अपने सहचर का चुनाव करने कि भी क्षमता अगर आप मे नहीं थी या हैं तो आप शादी जैसी संस्था पर बहस ही बेकार करते हैं


अगर आप खुल कर ये बता नहीं सकते कि क्यूँ आप ने विवाह किया , कैसे किया , चुनाव कैसे किया इत्यादि तो आप उन लोगो पर कैसे प्रश्न चिन्ह लगा सकते हैं जो इस व्यवस्था को नकारते हैं या उस से हट कर नये रास्तो पर चलते हैं ।

नए रास्ते बनते हैं तो नए कानून भी बनते हैं ताकि उन रास्तो पर चलने वालो को भी सुरक्षा दी जा सके ।


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