नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

June 28, 2009

ये सब क्यों और कब तक ???

आज कल घर मे काम करने वाली बाइयों के ऊपर हो रहे बलात्कार , क्या साबित करते हैं ? हर दिन कम से कम एक ख़बर जरुर पढ़ने को मिल जाती हैं । दो तीन दिन पहले गाजियाबाद मे एक काम वाली बाई का बलात्कार कर के उसको छत से नीचे फेक दिया । तहकीकात चल रही हैं पर घर के मालिक जो एक प्राइवेट बैंक मे मैनेजर हैं उनको पुलिस हिरासत मे लिया गया हैं ।
ये सब क्यों और कब तक ???

हिन्दी का प्रोफ़ेसर , यौन उत्पीड़न का दोषी , सेवा से निलंबित , दिल्ली विश्व विद्यालय

नई दिल्ली।। दिल्ली यूनिवर्सिटी के दो प्रफेसरों को बर्खास्त करने का फैसला किया गया है। इनमें एक हिंदी ड

िपार्टमंट का प्रफेसर है, जिसे यौन शोषण के आरोपों में दोषी पाया गया है

ईसी के मेंबर शिवासी पांडा ने बताया कि हिंदी डिपार्टमंट के प्रो. अजय तिवारी पर 2007 में उन्हीं के डिपार्टमंट की रिसर्च स्कॉलर ने यौन शोषण का आरोप लगाया गया था। जल्दी जांच और फैसले की मांग को लेकर स्टूडंट्स ने काफी प्रदर्शन किए थे और डिपार्टमंट पर काफी दबाव था। मामले की शुरुआती जांच में काउंसिल की सब-कमिटी ऑफ सेक्सुअल हैरसमंट ने दोषी पाया था और एपेक्स कमिटी को प्रफेसर तिवारी के डिमोशन और डिपार्टमंट के सारे अधिकारों से वंचित करने की सिफारिश की थी।

यूनिवर्सिटी की गरिमा को देखते हुए काउंसिल की शुक्रवार की बैठक में फैसला लिया गया कि प्रो. तिवारी को बर्खास्त कर दिया जाए। यह कड़ा फैसला इसलिए लिया गया, ताकि इस मामले से दूसरे लोग सबक लें और आगे से कोई भी स्टूडंट और टीचर के रिश्ते को खराब करने की कोशिश न करे।



पोस्ट आभार

June 26, 2009

यहाँ कमेंट की सुविधा नहीं हैं । टेक्स्ट मे लिंक हैं क्लिक करे वहाँ जाए और आगे भी पढे ।


इसके बाद मैनें एक काम शुरु कर दिया कुछ लोगो को ये काम कुछ अटपटा लगता है लेकीन मै इसको करता हुं वो ये की जब भी गाडी पर चलते वक्त कोई लडकी मुझे ऐसी हालत मे मिलती की उसकी जीन्स काफ़ी नीचे हो तो मै उस लडकी ये चलती गाडी पर इशारे से कह देता हु की अपनी टी-शर्ट नीचे कर लो।

ये मै नहीं कह रही ना कर रही हूँ हाँ कोई कर रहा हैं ये कार्य और बता भी रहा हैं वाह क्या बात हैं । ऊपर टेक्स्ट मे लिंक हैं क्लिक करे वहाँ जाए और आगे भी पढे । यहाँ कमेंट की सुविधा नहीं हैं । पर वहाँ जो कमेन्ट आ रहे हैं वो शानदार हैं।

June 25, 2009

जो follow कर रहे हैं वो अपना फीडबैक दे ।

अगर आप नारी ब्लॉग क्यो follow कर रहे हैं तो आज इस पोस्ट के जवाब मे ये बताये कि आप इस ब्लॉग को क्यूँ follow कर रहे हैं . आप का हर फीड बेक एक नयी दिशा देता हैं विचारो को सो जो follow कर रहे हैं वो अपना फीडबैक दे ।

June 23, 2009

मांगलिक दोष हैं कुंडली मे पर लड़का बहुत अच्छा कमाता खाता हैं ।

मांगलिक दोष हैं कुंडली मे पर लड़का बहुत अच्छा कमाता खाता हैं परिवार भी अच्छा हैं लेकिन मांगलिक दोष के विषय मे लड़की के पिता को नहीं बताया जाता पिता कुंडली देख कर रिश्ते से इनकार कर देता हैं लड़के का पिता
आहत हो जाता हैं और कहता हैं ये कोई ऐसा दोष नहीं हैं की उसके इतनी गुं संपन्न लड़के को रिजेक्ट कर दिया जाए
लड़के के पिता को लगता हैं ये सब ढकोसला हैं

क्या लड़की के पिता को इस रिश्ते को रिजेक्ट करने का अधिकार नहीं हैं ??

मांगलिक दोष को मानना सही हैं या ग़लत प्रश्न ये नहीं हैं , प्रश्न हैं की जब हम सब चीजों मे संस्कारो से जुड़ कर लड़की से आशा रखते हैं की वो बहु बन कर हमारे सब रीति रिवाजो मे ढल जायेगी

और हमारी बेटी बन कर रहेगी { जी हाँ जो लोग बहु को बेटी मानते हैं वो यही चाहते हैं की बहु उनके हिसाब से उनके परिवार मे रच बस जाए }

तो हम मांगलिक दोष के समय इतना फॉरवर्ड कैसे हो जाते हैं अपने हिसाब से बक्वार्ड फॉरवर्ड मे हम हमेशा अपनी सहूलियत देखते हैं

मुझे तो बहुत अच्छा लगा की एक पिता ने अपनी बेटी की जिंदगी को उसकी शादी से ज्यादा महत्व दियालड़की की कुशलता से ऊपर अगर संस्कार होते हैं तो लड़के की कुशलता से ऊपर भी संस्कार , विश्वास अंधविश्वास होते हैं

पोस्ट आभार

June 21, 2009

फादर्स डे - नारी ब्लॉग के सभी सदस्यों की और से सभी पिताओं को आज के दिन प्रणाम ।

आज फादर्स डे पर सब पुरूष मित्रो को जो पिता हैं या जिनमे पिता सरीखा स्नेह आज भी जीवित हैं को शुभकामनाये । ईश्वर से कामना हैं की आप के बच्चे आ़प को आदर और स्नेह देते रहे और आप का हाथ उनके सर पर आशीष के लिये हमेशा बना रहे । नारी ब्लॉग के सभी सदस्यों की और से सभी पिताओं को आज के दिन प्रणाम ।

June 19, 2009

उसकी "ना " क्यो "ना " ही समझे , इसी मे भलाई हैं आपकी . accept "no" as "no"

बलात्कार पहले भी होता था और आज भी होता हैं । फरक बस इतना हैं की आज की नारी मुखर रूप से इसका विरोध करती हैं । नारी की "ना" को "ना" समझने की गलती आज के समय मे जो करते हैं वही इस बात को पुरजोर तरीके से कहते हैं कि बलात्कार नहीं हो सकता सदियों से नारी चाहे माँ हो या बेटी , बहिन हो या पत्नी , पडोसन हो या नौकरानी , भाभी हो या किसी भी रिश्ते मे पुरूष से बंधी हो उसकी "ना" को नहीं समझा जाता । उसकी सहमति लेने कि जरुरत ही नहीं समझी जाती ।

समय के साथ बदलाव आया हैं , समाज मे नहीं नारी मे । आज कि नारी अपने प्रति किये गये अन्याय को सहना नहीं चाहती । आज एक नाबालिक नौकरानी भी इतनी हिम्मत रखती हैं कि वो थाने मे जा कर अपने ऊपर किये के यौन शोषण कि रपट लिखवा दे ।

पहले ऐसा नहीं था । ना जाने कितनी नौकरानियों के साथ यौन सम्बन्ध घर के मालिक स्थापित करते थे और समझते थे कि उन्होने नौकरानी को अनुग्रहित किया । आज भी पुरूष कि मानसिकता वही हैं पर स्त्री कि मानसिकता मे बहुत फरक आ गया हैं । पुरूष आज भी यही सोचता हैं कि बलात्कार करके भी वो नौकरानी को अनुग्रहित कर रहा हैं क्युकी वो पुरूष हैं और नौकरानी स्त्री ।

लोग कहते हैं बलात्कार मे अगर स्त्री कि सहमति है तो वो बलात्कार नहीं होता । ऐसे लोगो कि जानकारी के लिये बता दूँ कि विदेशो मे सेक्स एजूकेशन मे लड़कियों को ये समझया जाता हैं कि अगर दुर्भाग्य से आप किसी ऐसे हादसे का शिकार हो जाए जहाँ आप कि जान पर बन जाए तो बलात्कारी पुरूष के साथ झगडा न करे । आप को बहुत चोट लग सकती हैं । आप सहमति यानी बिना झगडे सम्भोग होने दे ताकि आप के शरीर को बहुत चोट ना आए और वो दरिंदा आप को जीवित छोड़ दे

ये समस्या हमारे यहाँ ज्यादा हैं क्युकी हमारे यहाँ सेक्स एजूकेशन टैबू हैं । लोग बिना पुरी जानकारी के बलात्कार को केवल सम्भोग से जोड़ते हैं जबकि ऐसा नहीं हैं । इस लिंक पर आप को काफी जानकारी मिल सकती हैं । जरुर पढे । फिर चर्चा करे ।

बात महिला और पुरूष की नहीं हैं , बात हैं सहमति / असहमति की । और अगर स्त्री की असहमति हैं तो वो बलात्कार ही हैं । आप बाद मे लाख चिल्लाये लेकिन कुछ नहीं होगा । अब साइंस ने बहुत तरक्की कर ली हैं और महिला ये समझ गयी हैं की अगर आप उसकी "ना " को नहीं समझेगे तो वो आप को कोर्ट मे खीच सकती हैं ।

आज लोग जानते हैं की कोई बच्चा नाजायज नहीं होता क्युकी DNA TEST बता सकता हैं की बच्चे के पिता कौन हैं

ये कहना की बलात्कार करने वाला पुरूष दोषी नहीं हैं क्युकी महिला ने अपनी सहमति दर्ज करा दी थी उसी तरह हुआ जैसे आप के घर मे चोर आए और आप की कनपटी पर बन्दूक रखे और कहे मुझे चोरी करने दो नहीं तो जान से मार दूंगा और आप उसको "सहर्ष" हां कह दे जान हैं तो जहान हैं । फिर चोर की क्या गलती उसने तो अनुमति आप से ले ही ली थी !!!!!!!!

समय के साथ महिला भी अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो गयी हैं । पहले जो सब उनको जबरन "मान्य " करवाया जाता था अब उन्हें वो"मान्य "नहीं हैं । जैसे जैसे आर्थिक रूप से और स्वतंत्रता आयेगी नारी अपने अधिकारों के प्रति और सचेत होगी सो समय रहते पुरूष भी सचेत हो जाए वरना ना जाने कितने पुरूष हवालात मे होगे ।

पत्नी को जेब खर्च क्यों ?? क्यूँ नहीं ?

पत्नी को जेब खर्च क्यों ?? क्यूँ नहीं ? आप क्या कहते हैं । यहाँ कहे

June 18, 2009

खूब लड़ी मरदानी, अरे झांसी वारी रानी (18 जून बलिदान दिवस पर विशेष)

स्वतंत्रता और स्वाधीनता प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी से आत्मसम्मान और आत्मउत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। भारतीय राष्ट्रीयता को दीर्घावधि विदेशी शासन और सत्ता की कुटिल-उपनिवेशवादी नीतियों के चलते परतंत्रता का दंश झेलने को मजबूर होना पड़ा था और जब इस क्रूरतम कृत्यों से भरी अपमानजनक स्थिति की चरम सीमा हो गई तब जनमानस उद्वेलित हो उठा था। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए क्रान्ति यज्ञ की बलिवेदी पर अनेक राष्ट्रभक्तों ने तन-मन जीवन अर्पित कर दिया था।

क्रान्ति की ज्वाला सिर्फ पुरुषों को ही नहीं आकृष्ट करती बल्कि वीरांगनाओं को भी उसी आवेग से आकृष्ट करती है। भारत में सदैव से नारी को श्रद्धा की देवी माना गया है, पर यही नारी जरूरत पड़ने पर चंडी बनने से परहेज नहीं करती। ‘स्त्रियों की दुनिया घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करती इन वीरांगनाओं के बिना स्वाधीनता की दास्तान अधूरी है, जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिया। 1857 की क्रान्ति में जहाँ रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, बेगम जीनत महल, रानी अवन्तीबाई, रानी राजेश्वरी देवी, झलकारी बाई, ऊदा देवी, अजीजनबाई जैसी वीरांगनाओं ने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिये, वहीं 1857 के बाद अनवरत चले स्वाधीनता आन्दोलन में भी नारियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इन वीरांगनाओं में से अधिकतर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे किसी रजवाड़े में पैदा नहीं हुईं बल्कि अपनी योग्यता की बदौलत उच्चतर मुकाम तक पहुँचीं।

1857 की क्रान्ति की अनुगूँज में जिस वीरांगना का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, वह झांसी में क्रान्ति का नेतृत्व करने वाली रानी लक्ष्मीबाई हैं। 19 नवम्बर 1835 को बनारस में मोरोपंत तांबे व भगीरथी बाई की पुत्री रूप मे लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था, पर प्यार से लोग उन्हंे मनु कहकर पुकारते थें। काशी में रानी लक्ष्मीबाई के जन्म पर प्रथम वीरांगना रानी चेनम्मा को याद करना लाजिमी है। 1824 में कित्तूर (कर्नाटक) की रानी चेनम्मा ने अंगेजों को मार भगाने के लिए ’फिरंगियों भारत छोड़ो’ की ध्वनि गुंजित की थी और रणचण्डी का रूप धर कर अपने अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व रानी चेनम्मा काशीवास करना चाहती थीं पर उनकी यह चाह पूरी न हो सकी थी। यह संयोग ही था कि रानी चेनम्मा की मौत के 6 साल बाद काशी में ही लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ।

बचपन में ही लक्ष्मीबाई अपने पिता के साथ बिठूर आ गईं। वस्तुतः 1818 में तृतीय मराठा युद्ध में अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय की पराजय पश्चात उनको 8 लाख रूपये की वार्षिक पेंशन मुकर्रर कर बिठूर भेज दिया गया। पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ उनके सरदार मोरोपंत तांबे भी अपनी पुत्री लक्ष्मीबाई के साथ बिठूर आ गये। लक्ष्मीबाई का बचपन नाना साहब के साथ कानपुर के बिठूर में ही बीता। लक्ष्मीबाई की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई। 1853 में अपने पति राजा गंगाधर राव की मौत पश्चात् रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी का शासन सँभाला पर अंग्रेजों ने उन्हें और उनके दत्तक पुत्र को शासक मानने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजी सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई को पांच हजार रूपये मासिक पेंशन लेने को कहा पर महारानी ने इसे लेने से मना कर दिया। पर बाद में उन्होंने इसे लेना स्वीकार किया तो अंग्रेजी हुकूमत ने यह शर्त जोड़ दी कि उन्हें अपने स्वर्गीय पति के कर्ज को भी इसी पेंशन से अदा करना पड़ेगा, अन्यथा यह पेंशन नहीं मिलेगी। इतना सुनते ही महारानी का स्वाभिमान ललकार उठा और अंग्रेजी हुकूमत को उन्होंने संदेश भिजवाया कि जब मेरे पति का उत्तराधिकारी न मुझे माना गया और न ही मेरे पुत्र को, तो फिर इस कर्ज के उत्तराधिकारी हम कैसे हो सकते हैं। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को स्पष्टतया बता दिया कि कर्ज अदा करने की बारी अब अंग्रेजों की है न कि भारतीयों की। इसके बाद घुड़सवारी व हथियार चलाने में माहिर रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर देने की तैयारी आरंभ कर दी और उद्घोषणा की कि-‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।”

रानी लक्ष्मीबाई द्वारा गठित सैनिक दल में तमाम महिलायें शामिल थीं। उन्होंने महिलाओं की एक अलग ही टुकड़ी ‘दुर्गा दल’ नाम से बनायी थी। इसका नेतृत्व कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में था। झलकारीबाई ने कसम उठायी थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं श्रृंगार करूंगी और न ही सिन्दूर लगाऊँगी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारीबाई जोशो-खरोश के साथ लड़ी। चूँकि उसका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफी मिलता-जुलता था, सो जब उसने रानी लक्ष्मीबाई को घिरते देखा तो उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कहा और स्वयं घायल सिहंनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और शहीद हो गई। रानी लक्ष्मीबाई अपने बेटे को कमर में बाॅंध घोडे़ पर सवार किले से बाहर निकल गई और कालपी पहुँची, जहाँ तात्या टोपे के साथ मिलकर ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया।....अन्ततः 18 जून 1858 को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की इस अद्भुत वीरांगना ने अन्तिम सांस ली पर अंग्रेजों को अपने पराक्रम का लोहा मनवा दिया। तभी तो उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा - ‘‘यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो व्रिदोहियों में एकमात्र मर्द थी।”

इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। वैसे भी इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शाश्वत होती है जो बीते हुये कल को उपलब्ध साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत प्रस्तुत करती है। बुंदेलखण्ड की वादियों में आज भी दूर-दूर तक लोक लय सुनाई देती है- खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी/पुरजन पुरजन तोपें लगा दई, गोला चलाए असमानी/ अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी/सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी/......छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी। माना जाता है कि इसी से प्रेरित होकर ‘झाँसी की रानी’ नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चैहान ने 1857 की उनकी वीरता का बखान किया हैं- चमक उठी सन् सत्तावन में/वह तलवार पुरानी थी/बुन्देले हरबोलों के मुँह/हमने सुनी कहानी थी/खूब लड़ी मर्दानी वह तो/झाँसी वाली रानी थी ।
आकांक्षा

पति की बात को भी ग़लत नहीं कह सकती क्युकी पति अपनी कमाई से घर चलाना अपना धर्म समझता हैं पर पत्नी का कोई भी पर्सनल खर्चा नहीं देना चाहता ।

बहुत से महिलाए जो केवल घर मै रह कर घर का संचालन करती हैं यानी जो किसी भी प्रकार का धन कमा कर नहीं लाती हैं उनके पति उनको कोई भी पैसा नहीं देते हैं उनके निज के खर्चे के लिये । पति घर का पूरा समान लाते हैं और घर का हर खर्च चलाते हैं , बच्चो की फीस इत्यादि भी देते हैं लेकिन पत्नी के हाथ मे कोई पैसा नहीं देते । पत्नी को अगर एक भी पैसा अपनी मर्ज़ी से खर्चा करना हैं तो वो नहीं कर सकती क्युकी उसके हाथ मे कोई पैसा होता ही नहीं हैं ।
कुछ देने पहले मेरे पड़ोस मे रहने वाली प्रवीना को अपने मायके जाना था , वो चार साल से मायके नहीं गयी थी । रेल का टिकेट आने जाने का ८०० रुपए मात्र था । प्रवीना के पति ने कहा अपने मायके से कहो की बुकिंग करा कर टिकिट कुरिएर से भेज दे । मायके वालो ने कहा तुम पति की ज़िम्मेदारी हो हम ज्यादा से ज्यादा एक तरफ़ { वापसी } का किराया दे सकते हैं । इसी बात को लेकर ४ वर्ष तक प्रवीना मायके नहीं गयी । प्रवीना को कुछ समझ नहीं आ रहा वो क्या करे ।

पति का कहना हैं की मेरी जिम्मेदारी घर को चलाना हैं जो मै कर रहा हूँ तुम्हारे खर्चे उठाना मेरी ज़िम्मेदारी मै नहीं आता , तुम अपने खर्चे ख़ुद उठाओ । ज्यादा बात करने पर पति गाली गलोज पर उतर आता हैं और मार पीट बी करता हैं । मायके वाले कहते हैं की शादी कर दी अब तुम पति की ज़िम्मेदारी हो ।

प्रवीना की शादी को १२ साल से ज्यादा होगये हैं । पहले वो ट्यूशन करके अपने खर्चे निकाल लेती थी पर अब पिछले साल उन पति पत्नी ने एक नवजात शिशु गोद लिया हैं { खर्चा ४०००० } सो प्रवीना अब ट्यूशन नहीं कर सकती ।

प्रवीना के मायके मे माँ , भाई भाभी हैं और ससुराल मे सास और पति । सास साथ नहीं रहती , २ कमरे का छोटा फ्लैट उसके पति ने १२ लाख मे पिछले साल ख़रीदा हैं अपने नाम से क्युकी उसके अनुसार उसने अपने पैसे से ख़रीदा हैं । अगर प्रवीना को अपना नाम डलवाना हैं तो ६ लाख वो अपने मायके से लाये ।

प्रवीना से बात करके समझ नहीं आया की क्या जवाब दूँ की कैसे वो मायके जाए ।
पति की बात को भी ग़लत नहीं कह सकती क्युकी पति अपनी कमाई से घर चलाना अपना धर्म समझता हैं पर पत्नी का कोई भी पर्सनल खर्चा नहीं देना चाहता ।

क्या आप मे से किसी के सामने भी कभी ऐसी समस्या आती हैं ?

June 17, 2009

"बलात्कार" पर कुछ ब्लॉग पोस्ट का संकलन

बलात्कार पर लिखना इतना आसान नहीं हैं पर जिस देश मे रोज ऐसी खबरे आती हो उस देश मे इन मुद्दों पर ब्लॉग पर अपनी भाषा मे यानी हिन्दी मे बात ना हो ये सम्भव नहीं हैं । कम ही सही पर कुछ जरुर लिखा गया हैं ब्लॉगर की कलम से इस पर आप भी पढे और जहाँ सम्भव तो अपने विचार भी दे । इन मुद्दों पर बात करना जरुरी हैं क्युकी ये सब सालो से या कहे तो सदियों से हो रहा हैं और हम सब इसका विरोध जरुर करते रहे हैं पर मूक रहे कर । शायद संस्कार वश । पर अब समय हैं की हम इसका विरोध दर्ज करे शब्दों मे ताकि बात हो । हमेशा बात आकर् रुक जाती हैं नारी के कपड़ो पर पर क्या वाकयी नारी के कपडे ही बलात्कार का कारण हैं ?

सच्चाई यही है कि हर दूसरी नौकरानी भी बलात्कार या फिर यौन शोषण का शिकार होती है।

बलात्कार के पीछे का मनोविज्ञान समझो या एक दूसरे को कोसते रहो

ज्यादातर बलात्कार की घटनाओं में शारीरिक आवेग कम अपने दंभ की पुष्टि करने का भाव ज्यादा जिम्मेदार होता है. किसी से बदला लेने का यह सबसे भयानक व पाशविक तरीका है.

बलात्कार को पाशविक कृत्य मत कहो .......प्लीज़ !

June 16, 2009

ईव-टीजिंग और ड्रेस कोड

कालेज लाइफ का नाम सुनते ही न जाने कितने सपने आँखों में तैर आते हैं। तमाम बंदिशों से परे वो उन्मुक्त सपने, उनको साकार करने की तमन्नायें, दोस्तों के बीच जुदा अंदाज, फैशन-ब्रांडिंग और लाइफ स्टाइल की बदलती परिभाषायें....और भी न जाने क्या-क्या। कालेज लाइफ में मन अनायास ही गुनगुना उठता है- आज मैं ऊपर, आसमां नीचे।

पर ऐसे माहौल में यदि शुरूआत ही बंदिशों से हो तो मन कसमसा उठता है। दिलोदिमाग में ख्याल उठने लगता है कि क्या जींस हमारी संस्कृति के विपरीत है। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी कमजोर है कि मात्र जींस-टाप पहन लेने से वो प्रभावित होने लगती है? क्या जींस न पहनने भर से लड़कियां ईव-टीजिंग की पीड़ा से निजात पा लेंगीं। दरअसल कानपुर के कई नामी-गिरामी कालेजों ने सत्र प्रारम्भ होने से पहले ही छात्राओं को उनके ड्रेस कोड के बारे में बकायदा प्रास्पेक्टस में ही फरमान जारी किया है कि वे जींस और टाप पहन कर कालेज न आयें। इसके पीछे निहितार्थ यह है कि अक्सर लड़कियाँ तंग कपड़ों में कालेज आती हैं और नतीजन ईव-टीजिंग को बढ़ावा मिलता है। स्पष्ट है कि कालेजों में मारल पुलिसिंग की भूमिका निभाते हुए प्रबंधन ईव-टीजिंग का सारा दोष लड़कियों पर मढ़ देता है। अतः यह लड़कियों की जिम्मेदारी है कि वे अपने को दरिंदों की निगाहों से बचाएं।

आज के आधुनिकतावादी एवं उपभोक्तावादी दौर में जहाँ हमारी चेतना को बाजार नियंत्रित कर रहा हो, वहाँ इस प्रकार की बंदिशें सलाह कम फरमान ज्यादा लगते हैं। समाज क्यों नहीं स्वीकारता कि किसी तरह के प्रतिबंध की बजाय बेहतर यह होगा कि अच्छे-बुरे का फैसला इन छात्राओं पर ही छोड़ा जाय और इन्हें सही-गलत की पहचान करना सिखाया जाय। दुर्भाग्य से कालेज लाइफ में प्रवेश के समय ही इन लड़कियों के दिलोदिमाग में उनके पहनावे को लेकर इतनी दहशत भर दी जा रही है कि वे पलटकर पूछती हैं-’’ड्रेस कोड उनके लिए ही क्यों ? लड़के और अध्यापक भी तो फैशनेबल कपड़ों में काॅलेज आते हैं, उन पर यह प्रतिबंध क्यों नहीं?‘‘ यही नहीं तमाम काॅलेजों ने तो टाइट फिटिंग वाले सलवार सूट एवं अध्यापिकाओं को स्लीवलेस ब्लाउज पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया है। शायद यहीं कहीं लड़कियों-महिलाओं को अहसास कराया जाता है कि वे अभी भी पितृसत्तात्मक समाज में रह रही हैं। देश में सत्ता शीर्ष पर भले ही एक महिला विराजमान हो, संसद की स्पीकर एक महिला हो, सरकार के नियंत्रण की चाबी एक महिला के हाथ में हो, यहाँ तक कि उ0 प्र0 में एक महिला मुख्यमंत्री है, पर इन सबसे बेपरवाह पितृसत्तात्मक समाज अपनी मानसिकता से नहीं उबर पाता।

सवाल अभी भी अपनी जगह है। क्या जींस-टाप ईव-टीजिंग का कारण हैं ? यदि ऐसा है तो माना जाना चाहिए कि पारंपरिक परिधानों से सुसज्जित महिलाएं ज्यादा सुरक्षित हैं। पर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं है। ग्रामीण अंचलों में छेड़खानी व बलात्कार की घटनाएं तो किसी पहनावे के कारण नहीं होतीं बल्कि अक्सर इनके पीछे पुरुषवादी एवं जातिवादी मानसिकता छुपी होती है। बहुचर्चित भंवरी देवी बलात्कार भला किसे नहीं याद होगा ? हाल ही में दिल्ली की एक संस्था ’साक्षी’ ने जब ऐसे प्रकरणों की तह में जाने के लिए बलात्कार के दर्ज मुकदमों के पिछले 40 वर्षों का रिकार्ड खंगाला तो पाया कि बलात्कार से शिकार हुई 70प्रतिशत महिलाएं पारंपरिक पोशाक पहनीं थीं।

स्पष्ट है कि मारल-पुलिसिंग के नाम पर नैतिकता का समस्त ठीकरा लड़कियों-महिलाओं के सिर पर थोप दिया जाता है। समाज उनकी मानसिकता को विचारों से नहीं कपड़ों से तौलता है। कई बार तो सुनने को भी मिलता है कि लड़कियां अपने पहनावे से ईव-टीजिंग को आमंत्रण देती हैं। मानों लड़कियां सेक्स आब्जेक्ट हों। क्या समाज के पहरुये अपनी अंतरात्मा से पूछकर बतायेंगे कि उनकी अपनी बहन-बेटियाँ जींस-टाप में होती हैं तो उनका नजरिया क्या होता है और जींस-टाप में चल रही अन्य लड़की को देखकर क्या सोचते हैं। यह नजरिया ही समाज की प्रगतिशीलता को निर्धारित करता है। जरूरत है कि समाज अपना नजरिया बदले न कि तालिबानी फरमानों द्वारा लड़कियों की चेतना को नियंत्रित करने का प्रयास करें। तभी एक स्वस्थ मानसिकता वाले स्वस्थ समाज का निर्माण संभव है।
आकांक्षा

June 14, 2009

और आप मे से बहुत नया मुद्दा तलाशेगे जहाँ आप महिला को समझा सके कि क्या पहनो ताकि बलात्कार ना हो ।

सूरत मे एक १७ साल की ना बालिग लड़की के साथ तीन युवको ने गैंग रेप किया । खबरों के अनुसार लड़की पड़ने के लिये अपने हमउम्र एक लड़के के साथ शाम को जा रही थी । ३ युवको ने दोनों को जबरदस्ती कार मे बिठाया और बारी बारी तीनो ने उस बच्ची के साथ बलात्कार किया । { रंगा बिल्ला ने १९७८ मै ऐसा ही किया था पर उन्होने गीताचोपडा और संजय चोपडा को मार भी दिया था } । बलात्कार के साथ साथ पूरे काण्ड का MMS भी बनाया गया । एक ghantey के baad उस बच्ची और उसके दोस्त को पटक कर तीनो फरार होगये ।

जब रंगा बिला कांड हुआ था मै १७ साल कि थी और दिल्ली विश्विद्यालय मे पढ़ती थी । उस समय हम सब छात्राओं ने अपने अपने कॉलेज से रैली निकाली थी और हम सब लेफ्टिनेंट गवर्नर के यहाँ धरने पर गए थे । उसके बाद ही उस केस पर कार्यवाही शुरू हुई थी ।

सूरत के केस मे सूरत के पुलिस कमिश्नर के का ब्यान हैं " कि लड़की को कोम्प्रोमिसिंग पोसिशन मे पाया गया और इसलिये बलात्कार करने वालो ने पुलिस कि वर्दी मे उनसे पूछताछ की ।" खबरों की माने तो जिस समय अभियुक्तों कलो पकड़ना चाहिये था उस समय पुलिस कमिश्नर के यहाँ दावत चल रही थी
लोगो { जिसमे महिलाए ज्यादा थी } ने अपना आक्रोश तीनो बलात्कारियों को पीट कर निकला जब वो पुलिस के साथ अस्पताल से बाहर रहे थेउसके बाद ही पुलिस कमिश्नर का ट्रान्सफर किया गया

बलात्कारियों मे दो के पिता पोलिस विभाग मे ही हैं और कह रहे हैं कि अगर ये प्रमाणित हो जाए कि उनके लड़को ने बलात्कार किया हैं तो उन्हे फासी दे दो

इस केस मे हो सकता हैं MMS कि वज़ह से एक प्रमाण मिल जाए तो क्या बलात्कारी को फासी देनी चाहिये

हमेशा ये ही कहा जाता हैं लड़कियों के वस्त्र अश्लील होते हैं इस लिये बलात्कार होते हैं { अभी कानपुर ने जींस पर प्रतिबन्ध ही लगा दिया हैं कि लडकियां ना पहने } । हिन्दी ब्लॉगर समाज मे भी जब भी किसी भी ब्लॉग पर बात होती हैं तो लोग यही लिखते हैं लडकियां मानसिक बलात्कार करती हैं पुरुषों का क्युकी वो कपडे ही ऐसे पहनती हैंएक पिंक चड्ढी भेजने से सारी भारतीये संस्कृति धरातल मे चली गयी और पोस्ट पर पोस्ट आती रही कि महिलाअनैतिक होगई हैं

अब क्यूँ इतना सन्नाटा हैं इस ब्लॉग जगत मे ?क्यूँ नहीं देखा नहीं लिखता भी कुछ भी कोई भी कही अलावाऔर कुछ इस्सी एक पोस्ट देखी "रेप करोगे तो ऐसे ही पिटोगे, भीड़ ने जमकर धुना बलात्कारियों को, न्याय का नया रूप।"

इसके अलावा कही भी कोई भी कुछ भी लिखता नहीं दीखावो सब जो महिला को हमेशा पाठ पढाते दिखते हैं कि क्या करो कैसे रहो क्या पहनो कैसे उठो कैसे बैठो वो सब ब्लॉगर कैसे इन मुद्दों पर बिल्कुल चुप्पी ओढ़ लेते हैं ? क्या कभी भी उनके आत्मा ये नहीं कहती कि कम से कम एक बार तो बलात्कार और बलात्कारी के ख़िलाफ़ लिखे

बस अभी दो एक दिन मे मानव अधिकार के रक्षक , न्याय प्रणाली के कर्ण हार उन बलात्कारियों के साथ उठ खडे होगी उनकी रक्षा के लिये और इस बच्ची के सम्बन्धी कहीं और बसने के लिये एक नया शहर तलाशेगे जहाँ उनकी बेटी दुबारा जिंदगी शुरू कर सके

और आप मे से बहुत नया मुद्दा तलाशेगे जहाँ आप महिला को समझा सके कि क्या पहनो ताकि बलात्कार ना होऔर कुछ यही कमेन्ट मे लिख जायेगे हर बात को संस्कृति से ना जोडे

June 11, 2009

यही भीरूपन हमको ले डूबता हैं ।

२६/११ को जब मुंबई मे आंतकवादी हमला हुआ था तब मैने

आज टिपण्णी नहीं साथ चाहिये ।

पोस्ट लिखी थी और बहुत से ब्लॉग पर मौन विरोध हुआ था केवल एक चित्र लगा कर । उस समय दिनेशराय द्विवेदी ने कहा था यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं

कल से पंगेबाज की पोस्ट पर निरंतर कमेन्ट पढ़ रही हूँ आज जब नहीं रहा गया तो एक कमेन्ट पोस्ट किया जो नीचे हैं

मै सिर्फ़ ये जानना चाहती हूँ कि दिनेशराय द्विवेदी इस लिंक यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं पर जो लिखा हैं उसको सही माना जाये या जो उन्होने आप को समझाया उसको सही माना जाए हमारी सोच क्या केवल और केवल उस समय ही बदलती हैं जब हम पर कोई हमला कर देता हैं बाकी समय हम एक दुसरे को केवल औरकेवल भीरु बना सिखाते हैं यही भीरूपन हमको ले डूबता हैं

June 10, 2009

जानकारी दे की महिला आरक्षण बिल क्या हैं संसद मे, क्यूँ आना चाहिये , क्या फायदा होगा और क्या क्या नुक्सान होगा ।

महिला आरक्षण बिल क्या हैं और इसकी जरुरत क्यूँ हैं ? इस विषय पर आप मे से जो भी जानकार कुछ जानकारी यहाँ बाटना चाहे बाटे । कभी कभी बहुत कुछ सुनाई और दिखाई देता हैं जो सबको सभी नहीं समझ आता । आप की दी हुई जानकारी से कोई ना कोई जरुर लाभान्वित होगा ।

जानकारी दे की महिला आरक्षण बिल क्या हैं ,संसद मे क्यूँ आना चाहिये , क्या फायदा होगा और क्या क्या नुक्सान होगा ।

June 07, 2009

ऐसी खबरे नैतिकता और सामाजिक पतन के दायरे मे नहीं आती हैं , ये कुछ और चिंतन मांगती हैं ।

आज एक ख़बर हैं जिसे मे आप सब से जरुर बाटना चाहूंगी । ये खबर उन सब के लिये बहुत महत्व पूर्ण हैं जो माता पिता हैं २५ वर्ष से ऊपर की लड़कियों के । वो लड़किया तो पढी लिखी हैं और कमाती भी हैं ।
इस विषय मे पिछले हफ्ते केवल एक ब्लॉग पर ही कुछ पढने को मिला और उस ब्लॉग का लिंक यहाँ हैं ।

ख़बर इस लिंक पर हैं और उसका टेक्स्ट ये हैं । आप भी पढे और अगर लगे की आप को कुछ कहना हैं तो जरुर कहे

ऐसी खबरे नैतिकता और सामाजिक पतन के दायरे मे नहीं आती हैं , ये कुछ और चिंतन मांगती हैं । दोषारोपण नहीं अपितु अपने अंदर झाँक कर देखने की जरुरत हैं की क्या आप के घर मे भी कहीं ऐसा कुछ हो सकने की सम्भावना तो नहीं पनप रही हैं ।

Why ‘big girls’ struggle with meddlesome mums
Meenakshi Kumar | TNN




Sakshi Kapoor, the young schoolteacher who allegedly killed her mother a few days ago, is reported to have had a troubled relationship with her “meddlesome” parent. Sakshi may be the exception in her violent response to maternal control, but many Indian daughters struggle with it.
Clinical psychologist Sujatha Sharma says
India is extraordinary in that “a child remains a child to the parents, even if she turns 20 or 50। With daughters, mothers are more protective. They think it’s their right to monitor her every move because that’s the only way they can protect her”.{ भारत मे एक बच्चा { यहाँ लड़की } माँ पिता के लिये बच्चा ही बना रहता हैं चाहे वो २० का हो या ५० का । बेटियों के साथ माँ ज्यादा सुरक्षात्मक हो जाती हैं क्युकी उसको लगता हैं कीअपनी बेटी पर नस्ज़र रखना उसका अधिकार हैं और बेटी पर नज़र रख कर ही वो बेटी को सुरक्षा दे सकती हैं }
Sometimes, it becomes too intrusive, as is now so tragically recorded with Sakshi and her mother Kiran. Tensions can rise particularly in the case of relationships. Otherwise liberal Indian women can be particularly tough on their daughters “when it comes to the bank balance, bedroom (relationships) and the kitchen… girls want complete independence. That’s when conflict crops up,” says Harish Shetty, visiting psychiatrist at Mumbai’s Dr L H Hiranandani hospital.
Back in the sixties, actor Nutan dragged mother Shobhana Samarth, herself a successful actor, to court for misappropriation of funds. A few decades later, another successful actor, Sarika, walked out on her mother, accusing her of mistreatment and dishonesty.
The alleged “mistreatment” almost previews Sakshi’s anger at her mother. But in India, say experts, mothers believe they must protect their daughters’ morals because Indian girls are seen to uphold family honour or izzat. “If a girl is seen to violate the family’s izzat, it’s left to the mother to correct her. And since the mother refuses to treat her as a grown-up, the young lady gets rebuked or even beaten if she is difficult,” says sociologist Renu Adhlakha, senior fellow at Delhi’s Centre for Women’s Development Studies.
But psychologist Sharma discerns another, uglier tendency among Indian mothers. Women often feel powerful if they are able to control their children, particularly daughters. “They don’t have control over their husbands and are little respected throughout their life, so this is their way of showing that they too have control,” says Sharma.
She may have a point. Housewife R Seetha recalls her mother following her on a date and confronting her boyfriend. “It was very embarrassing. She scolded me in front of my boyfriend and even shouted at him. I was furious but could say nothing.” But Shetty says Indian mother-daughter relationship is becoming more beautiful with greater openness today than a generation ago. “I often tell parents that beating is cheaper, talking goes deeper. It is essential that mothers learn to discuss things with their daughters instead of shouting or beating,” he says.

June 04, 2009

बढे चलो

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल
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